Sunday, April 20, 2008

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Saturday, April 12, 2008

premchand ke upanyas GABAN

GABAN
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
आमुख
आपने जबसे होश संभाला आप प्रेमचंद को पढ़ते और प्यार करते आये हैं। बचपन से लेकर उम्र ढलने तक प्रेमचंद आपके संग-संग चलता रहा है। निश्चय ही आप से कितनों का ही प्रेमचंद साहित्य से गहरा परिचय भी होगा और मुझे विश्वास है कि प्रेमचंद के जीवन-परिचय की मोटी-मोटी बातें भी आप काफी कुछ जानते होंगे। जैसे कि उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही नाम के एक गाँव में हुआ था और पिता मुंशी अजायब लाल एक डाकमुंशी थे। घर पर साधारण खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की मुंहताजी तो न थी, पर इतना शायद कभी न हो पाया कि उधर से निश्चिंत हुआ जा सके।मगर यह बात तो बड़े लोगों की चिन्ता थी, जहाँ तक इस लड़के नवाब या धनपत की बात थी-यही उनके असल नाम थे, ‘प्रेमचंद’ तो लेखकीय उपनाम था, ठीक-ठीक अर्थों में छद्म नाम, जो उन्होंने ‘सोजे वतन’ नामक अपनी पुस्तिका के सरकार द्वारा जब्त करके जला दिये जाने के बाद 1910 में अपनाया था, ताकि उस गोरी सरकार की नौकरी में रहते हुए भी वह पूर्ववत् लिखते रह सकें और उन्हें फिर राजकोप का शिकार न बनना पड़े-उसका बचपन भी गाँव के और सब बच्चों की तरह खेलकूद में बीता, जो बचपन का अपना वरदान है।छः सात साल की उम्र में, कायस्थ घरानों की पुरानी परंपरा के अनुसार, उसे भी पास ही लालगंज नाम के एक गांव में एक मौलवी साहब के पास जो पेशे से दर्जी थे, फारसी और उसी के साथ घलुए में उर्दू पढ़ने के लिए भेजा जाने लगा, पर उससे नवाब के खेल तमाशे में कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि मौलवी साहब काफी मौजी तबियत के ठीलमढाल आदमी थे, जिनका किस्सा नवाब ने आगे चलकर अपनी कहानी ‘चोरी’ में खूब रस ले-लेकर सुनाया है, पर वह जैसे ही ढीलमढाल रहे हों, वह शायद पढ़ाते अच्छा ही थे, क्योंकि लोग कहते हैं, मुंशी प्रेमचंद्र का फारसी पर अच्छा अधिकार था। फारसी भाषा का प्यार भी मौलवी साहब ने लड़के के मन में जरूर जगाया होगा, क्योंकि बी.ए. तक की परीक्षा में प्रेमचंद्र का एक विषय फारसी रहा।थोड़ी-सी पढ़ाई और ढेरों खिलवाड़ और गांव की जिंदगी के अपनी मर्जी के साथ माँ और दादी के लाड़-प्यार में लिपटे हुए दिन बड़ी मस्ती में बीत रहे थे कि गोया आसमान से इस बच्चे का इतना सुख न देखा गया और उसी साल माँ ने बिस्तर पकड़ लिया। मुंशी अजायब लाल की ही तरह वह भी संग्रहणी की पुरानी मरीज थीं। इस बार का हमला जानलेवा साबित हुआ। नवाब तब सात साल का था और उसकी बड़ी सगी बहन सुग्गी पंद्रह की। उसी साल उसका ब्याह मिर्जापुर के पास लहौली नाम के गांव में हुआ था गौना भी हो गया था। मां के मरने के आठ-दस रोज पहले आयीं, बड़ी-बड़ी सेवा की। नवाब भी मां के सिरहाने बैठा पंखा झलता रहा और उसके चचेरे बड़े भाई बलदेव लाल, जो बीस साल के नौजवान थे और एक अंग्रेज के यहां टेनिस की गेंद उठा-उठाकर खिलाड़ी को देने पर नौकर थे, दवा-दारु के इंतजाम में लगे रहते थे, लेकिन सब व्यर्थ हुआ।सात साल के नवाब को अकेला छोड़कर मां चल बसी और उसी दिन वह नवाब, जिसे मां पान के पत्ते की तरह फेरती रहती थी, देखते-देखते सयाना हो गया। और उसके सर पर तपता हुआ नीला आकाश था, नीचे जलती हुए भूरी धरती थी, पैरों में जूते न थे और न बदन पर साबित कपड़े, इसलिए, नहीं कि यकायक पैसे का टोटा पड़ गया था, बल्कि इस लिये कि इन सब पर नजर रखने वाली मां की आंखें मुँद गयी थीं। बाप यों भी कब मां की जगह ले पाता है, उस पर से वह काम के बोझ से दबे रहते। तबादलों का चक्कर अलग से। कभी बाँदा तो कभी बस्ती, तो कभी गोरखपुर तो कभी कानपुर, कभी इलाहाबाद तो कभी लखनऊ, कभी जीयनपुर तो कभी बड़हलगंज किसी एक जगह जम के न रहने पाते। बेटे को उनके संग-साथ की, दोस्ती की भी जरूरत हो सकती है, इसके लिए उनके पास न तो समझ थी और न समय। ‘कजाकी’ में मुंशीजी ने शायद अपनी ही बात बच्चे के मुँह से कहलायी है:बाबूजी बड़े गुस्सेवर थे। उन्हें काम बहुत करना पड़ता था, इसी से बात-बात से पर झुँझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी आता ही न था, वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे। यानी की प्यार, दोस्ती संग-साथ नवाब को जो कुछ मिलता था, अपनी माँ से मिलता था। सो माँ अब नहीं रही। माँ जैसा ही प्यार कुछ-कुछ बड़ी बहन से मिलता था, सो वह अपने घर चली गयी। नबाब की दुनिया घर के नाते सूनी हो गयी। यह कमी कितनी गहरी, कितनी तड़पानेवाली रही होगी, जो सारी जिंदगी यह आदमी उससे उबर नहीं सका और उसने बार-बार ऐसे पात्रों की सृष्टि की, जिनकी माँ बचपन में ही मर गयी थी और फिर उनकी दुनिया सूनी हो गयी। :‘कर्मभूमि’ में अमरकान्त कहता है: जिंदगी की वह उम्र, जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बचपन है। उस वक्त पौधे को तरी मिल जाये, तो जिंदगी भर के लिए उसकी जड़े मजबूत हो जाती हैं। उस वक्त खुराक न पाकर उसकी जिंदगी खुश्क हो जाती है। मेरी माँ का उसी जमाने में देहान्त हुआ और तब से मेरी रूह को खुराक नहीं मिली। वही भूख मेरी जिंदगी है।और फिर दूसरी माँ के आ जाने का भी शायद वह अपना ही अनुभव है, जिसे मुंशी जी ने उसी अमरकान्त की कहानी सुनाते हुए यों व्यक्त किया है:अमरकान्त ने मित्रों के कहने-सुनने से दूसरा विवाह कर लिया था। उस सात साल के बालक ने नयी माँ का बड़े प्रेम से स्वागत किया, लेकिन उसे जल्द मालूम हो गया कि उसकी नयी माँ उसकी जिद और शरारतों को उस क्षमादृष्टि से नहीं देखती, जैसे उसकी माँ देखती थी। वह अपनी माँ का अकेला लाड़ला था। बड़ा जिद्दी, बड़ा नटखट। जो बात मुँह से निकल जाती, उसे पूरा करके ही छोड़ता। नयी माता जी बात-बात पर डाँटती थीं। यहां तक की उसे माता से द्वेष हो गया, जिस बात को वह मना करतीं, उसे अदबदाकर करता। पिता से भी ढीठ हो गया। पिता और पुत्र में स्नेह का बंधन न रहा।यह मनःस्थिति ठीक वह थी, जिसमें इस लड़के नवाब के बहक जाने का पूरा सामान था, लेकिन प्रकृति जैसे अपने और तमाम जंगली-पौधों को, जिनकी सेवा-टहल के लिए कोई माली नहीं होता, नष्ट होने से बचाती है, उसी तरह इस आवारा छोकरे को भी बचाने का एक ढंग उसने निकाला, ऐसा ढंग जो उसकी नैसर्गिक प्रतिभा के अनुकूल था। आवारागर्दी को उसने बंद नहीं किया, बस एक हल्का सा मोड़ दे दिया, मोटी-मोटी तिलिस्म और ऐयारी की किताबों में, जिनका रस छन-छनकर उसके भीतर के किस्सागों को खुराक पहुँचाने लगा। इन किताबों में सबसे बढ़कर थी फैदी की तिलिस्मे होशरुबा, दो-दो हजार पन्नो की अठारह जिल्दें। तेरह साल के इस लड़के ने उसको तो पढ़ ही डाला और भी बहुत कुछ पढ़ डाला, जैसे रेनाल्ड की ‘मिस्ट्रीज ऑफ द कोर्ट ऑफ लंडन’ की पचीसों किताबों के उर्दू तुर्जमे, मौलाना सज्जाद हुसैन की हास्य-कृतियां मिर्जा रुसवा और रतननाथ सरशार के ढेरों किस्से। कोई पूछे कि इतनी किताबें इस लड़के को मिलती कहां थीं।रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले-लेकर पड़ता था। मगर दूकान पर सारे दिन तो बैठ नहीं सकता था, इसलिए मैं उसकी दूकान में अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियां और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और उसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था। दो तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे।यह गोरखपुर की बात है, जहाँ उन दिनों वह अपने पिता और दूसरी माँ के साथ रहता था और रावत पाठशाला में पढ़ता था, जहाँ उसने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की। कहने की जरूरत नहीं कि जहाँ ऐसी अच्छी-अच्छी किताबों की पढ़ाई दिन-रात चल रही हो, वहां स्कूल की नीरस किताबों को कौन देखता होगा और क्यों देखे, पर हमारे कथा-साहित्य की दृष्टि से जो हुआ, अच्छा हुआ क्योंकि सच्चे अर्थों में इन्हीं दिनों इन्हीं सब तैयारियों में से होकर उस अमर कथाकार प्रेमचंद का जन्म हुआ, जो आगे चलकर उर्दू और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में आधुनिक कहानी का जन्मदाता बना और आज दुनिया से चले जाने के पचास बरस बाद भी अपने उसी सर्वोच्च शिखर पर बैठा है और जिसने दुनिया की ऐसी लगभग तीन सौ कहानियां और चौदह छोटे-बड़े उपन्यास दिये, जिन्हें एक बार उठा लेने पर फिर छोड़ा नहीं जा सकता, जैसा कि आप सभी उनके असंख्य पाठकों का नित्य अनुभव है। स्वाभाविक ही है कि प्रेमचंद्र की गिनती आज दुनिया के महान लेखकों में होती है और उनके साहित्य का अनुवाद भारत की सभी भाषाओं में ही नहीं और भी पचास भषाओं में किया जा चुका है। रूसी, चीनी, जैसी किन्हीं-किन्हीं भाषाओं में तो शायद संपूर्ण प्रेमचंद साहित्य।लेकिन वह लेखक कितना ही बड़ा क्यों न हो, आदमी बहुत ही सीधा-साधा था, नितान्त सरल, निश्छल, विनयशील और वैसी ही सीधी-सादी उसकी जीवन-शैली थी। सोलहों आने वैसी ही, जैसी किसी भी दफ्तर के बाबू या स्कूल के मास्टर की होती है सवेरे नौ-दस बजे घर से सीधे अपने काम पर और पांच बजे सीधे अपने घर। अपने ही जैसे दो-चार संगी साथियों और अपने परिवार की छोटी-सी दुनिया ही उसकी कुल दुनिया है, जिसमें घर का बाजार-हाट भी है, बच्चों की सर्दी-खांसी भी है और परिवार की दांताकिलकिल भी है और फिर उन सबके बीच समर्पित भाव से किया गया इतना सब अजस्र लेखन है, जो सचमुच आश्चर्यजनक लगता है, जब इस बात की ओर ध्यान जाता है कि इतना सब जो लिखा गया है, वह लगभग सारी उम्र सात-आठ घंटे की एक न एक नौकरी करते लिखा गया है। मजे से पूरे समय लिख सके, इतनी भी सुविधा बेचारे को न जुट पायी। शुरू से लेकर आखिर तक अभाव और जीवन-संघर्ष की एक ही गाथा।वह अभी मुश्किल से पन्द्रह का था कि घरवालों ने उसका विवाह कर दिया, जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा। सोलह का होते होते पिता जी गिरस्ती का सब बोझ लड़के पर डालकर परलोक सिधारे। फलतः उस वर्ष मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं दे पाया। अगले साल परीक्षा में बैठा। द्वितीय श्रेणी में पास तो हो गया, लेकिन कालेज में प्रवेश न मिल पाया, पर हाँ, संयोग से बनारस के पास ही चुनार के एक स्कूल में मास्टरी मिल गयी और 1899 से स्कूल की मास्टरी का जो सिलसिला चला, वह पूरे बाईस साल यानी 1921 तक चला, जबकि मुंशी जी ने गांधी जी के आह्वान पर गोरखपुर के सरकारी स्कूल से इस्तीफा दिया। नौकरी करते हुए ही उन्होंने इंटर और बी.ए. पास किया।स्कूलमास्टरी के इस लंबे सिलसिले में प्रेमचंद्र को घाट-घाट का पानी पीना पड़ा कुछ-कुछ बरस में यहाँ वहाँ तबादले होते रहे। प्रतापगढ़ से इलाहाबाद से कानपुर से हमीरपुर से बस्ती से गोरखपुर। इन सब स्थान-परिवर्तनों में शरीर को कष्ट तो हुआ ही होगा और सच तो यह है कि इसी जगह-जगह के पानी ने उन्हें पेचिश की दायमी बीमारी दे दी। जिससे उन्हें फिर कभी छुटकारा नहीं मिला, लेकिन कभी कभी लगता है कि ये कुछ-कुछ बरसों में हवा-पानी का बदलना, नये नये लोगों के संपर्क में आना, नयी-नयी जीवन परिस्थियों में से होकर गुजरना, कभी घोड़े और कभी बैलगाड़ी पर गांव-गांव घूमते हुए प्राइमरी स्कूलों का मुआयना करने के सिलसिले में अपने देश के जनजीवन को गहराई में पैठाकर देखना, नयी-नयी सामाजिक समस्याओं और उनके नये-नये रूपों से रूबरू होना उनके लिए रचनाकार के नाते एक बहुत बड़ा वरदान भी था। दूसरे किसी आदमी को यह दर-दर भटकना शायद भटका भी सकता था, बिखेर भी सकता था, पर मुंशी जी का अपनी साहित्य-सर्जना के प्रति जैसा अनुशासित एकचित समर्पण आरंभ से ही था, यह अनुभव संपदा निश्चय ही उनके लिए अत्यंत मूल्यवान सिद्ध हुई होगी।जीवन-परिचय के संदर्भ में एक बात जो यथास्थान नहीं आ पायी, वह यह है कि प्रेमचंद ने शिवरात्रि के दिन 1906 में, उन्हीं दिनों जब वह शायद अपना छोटा उपन्यास ‘प्रेमा’ (ऊर्दू में ‘हमखुर्मा हमसवाब’) हिन्दी में लिख रहे होंगे (उसका प्रकाशन 1907 में हुआ) जिसका नायक एक विधवा लड़की से विवाह करता है, उन्होंने स्वयं एक विधवा लड़की शिवरानी देवी से विवाह किया, जो कालान्तर में उनके छः बच्चों की मां बनी, जिनमें से तीन अभी जीवित हैं।शिवरानी देवी बहुत सच्ची, अक्खड़, निडर अहंकार की सीमा तक स्वाभिमानी, दबंग शासनप्रिय महिला थीं,। प्रेमचंद खुद जैसे कोमल स्वभाव के आदमी थे, उन्हें शायद ऐसी ही जीवन-सहचरी की जरूरत थी और शायद इसीलिए प्रेमचंद के जीवन में उनकी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। जब जितना मिला उतने में घर चलाया, पारिवारिक चिन्ताओं और रगड़ों झगड़ों से उन्हें मुक्त किया-और बराबर उनके साथ कंधे से कंधा लगाकर उनकी शक्ति के एक स्तंभ के रूप में खड़ी रहीं। 8 फरवरी, 1921 को गांधी ने गोरखपुर की एक सभा में, जिसमें प्रेमचंद भी उपस्थित थे, सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के लिए लोगों का आवाहन किया। प्रेमचंद के मन में भी कुछ संकल्प बना। घर आये, पत्नी से कहा। पांच दिन संशय में गुजरे। इक्कीस साल की जमी-जमायी नौकरी छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। मुंशी जी की सेहत खराब, घर में दो छोटे-छोटे बच्चे और तीसरा होने वाला, आगे परिवार कैसे पलेगा इसका कुछ ठौर-ठिकाना नहीं पर छठे दिन शिवरानी देवी ने हिम्मत बटोरकर हरी झंडी दिखा दी, अगले दिन मुंशी जी ने इस्तीफा दाखिल कर दिया और आठवें दिन 16 फरवरी 1921 को मुंशी जी अपनी इतनी पुरानी सरकारी नौकरी को लात मारकर बाहर आ गये।उस रोज मुंशी जी ने अपना सरकारी क्वाटर्र छोड़ दिया। कुछ रोज बाद यह योजना बनी की महावीर पोद्दार के साझे में एक चर्खे की दूकान शहर में खोली जाये। आखिर दूकान खुली, दस कर्धे लगाये गये, लेकिन दूकान चलाना, भले वह चर्खे की दूकान हो, मुंशी जी के बस का रोग न था। उसी तरह वह देश सेवा के लिए मुंशीजी बने ही न थे। उनका माध्यम तो साहित्य है, सो लिखाई जोर से चल रही है। स्वराज्य के संदेश का प्रचार करने करने वाले लेख और सीधी देश प्रेम की कहानियाँ, जिनमें किसी तरह का बनाव-सिंगार नहीं है और उनके लिखते समय मुंशीजी को इस बात की ही चिन्ता है कि उनकी गिनती स्थायी साहित्य में होगी या नहीं। गांधी जी ने स्वराज्य की लड़ाई छेड़ रक्खी है। हर वह आदमी जिसे अपने देश से प्यार है, इस समय स्वराज्य का सिपाही है। कोई मैदान में जाकर लाठी खाता है कोई जेल की राह पकड़ता है, मुंशी जी अपना कलम देकर मैदान में उतरते हैं। इसी ख्याल से उन्होंने गोरखपुर से निकलने वाले एक उर्दू अखबार ‘तहकीक’ और एक हिन्दी अखबार ‘स्वदेश’ से बाकायदा जुड़ने और उनमें नियमित रूप से बराबर लिखने की कुछ शक्ल बनानी चाही, पर वह नहीं बनी, तो मुंशी जी बनारस आ गये, फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के चार महीने के बाद मुंशीजी मारवाड़ी विद्यालय, कानपुर पहुँच गये, लेकिन अपने यहाँ जो प्राइवेट स्कूलों का हाल है, स्कूल के हेडमास्टर प्रेमचंद की स्कूल के मैनेजर महाशय काशीनाथ से नहीं बनी और साल पूरा नहीं होने पाया कि मुंशी जी ने बहुत तंग आकर 22 फरवरी को वहां से इस्तीफा दे दिया और फिर बनारस पहुँचे गये।बनारस में उन्होंने संपूर्णनंद के जेल चले जाने पर कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला और फिर वहां से अलग होकर काशी विद्यापीठ पहुँच गये, जहां उन्हें स्कूल का हेडमास्टर बना दिया गया। अपना प्रेस खोलने की धुन भी बरसों से मन में समायी थी, उसकी तैयारी साथ साथ चलती रही। कुछ ही महीनों बाद जब स्कूल बंद कर दिया गया, तो मुंशी जी पूरे मन प्राण से प्रेस की तैयारी में लग गये-जो अन्नतः खुला तो मगर गले का ढोल बनकर रह गया, जो न तो बजाये बजता था और न गले से निकालकर फेंका जाता था।आखिर लखनऊ से ‘माधुरी’ पत्रिका के संपादक की कुर्सी संभालने का प्रस्ताव मिलने पर उसे स्वीकार करने के सिवा गति न थी, क्योंकि अपना प्रेस रोजी-रोटी देना तो दूर रहा बराबर घाटे पर घाटा दिये जा रहा था। फिर छः बरस लखनऊ रह गये और वहीं रहते-रहते 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया। उसके कुछ महीने पहले उन्होंने अपनी बेटी की शादी मध्यप्रदेश के सागर जिले की तहसील देवरी के एक अच्छे खाते-पीते देशसेवी घराने में कर दी थी। 1932 के आरंभ में लखनऊ का आबदाना खत्म हुआ और मुंशी जी फिर बनारस आ गये। ‘हंस’ तो निकल ही रहा था, ‘जागरण’ नामक एक साप्ताहिक और निकाला। वह भी बहुत अच्छा था, लेकिन अच्छा पत्र निकालना और उसे चला पाना दो बिल्कुल अलग बातें हैं।दोनों पत्रों के कारण जब काफी कर्जा सिर पर हो गया तब उसे सिर से उतारने के लिए मोहन भवनानी के निमंत्रण पर उसके अजंता सिनेटोन में कहानी-लेखक की नौकरी करने बंबई पहुंचे। ‘मिल’ या मजदूर के नाम से उन्होंने एक फिल्म की कथा लिखी और कंट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये क्योंकि बंबई का और उससे भी ज्यादा वहां की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। बंबई टाकीज तब हिमांशु राय ने शुरू की थी। उन्होंने मुंशी जी को बहुत रोकना चाहा पर मुंशीजी किसी तरह नहीं रुके। यहां तक कि बनारस से ही फिल्म की कहानियां भेजते रहने का प्रस्ताव भी नहीं स्वीकार किया। बंबई में सेहत और भी काफी टूट चुकी थी, बनारस लौटने के कुछ ही महीने बाद बीमार पड़े और काफी दिन बीमारी भुगतने के बाद 8 अक्टूबर, 1936 को चल बसे। यही उनका कुल जीवन-परिचय है, जिसमें नाटकीय तत्व तो छोड़ दीजिये, कोई विशेष कथा-तत्व भी नहीं है। तभी तो उन्होंने अपने बारे में लिखा था:मेरा जीवन एक सपाट समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं तो गढे तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों, और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो निराशा ही होगी।और सच तो यह है कि अगर ऐसी कुछ बात ही न आ पड़ती, तो शायद उस व्यक्ति ने अपने बारे में इतना भी न लिखा होता। कोई पूछता तो वह शायद कह देता, मेरी जिन्दगी में ऐसा है ही क्या जो मैं किसी को सुनाऊं। बिल्कुल सीधी सपाट जिन्दगी है, जैसे देश के और करोड़ों लोग जीते हैं। एक सीधा-सादा, गृहस्थी के पचड़ों में फंसा हुआ तंगदस्त मुदर्रिस, जो सारी जिन्दगी कलम घिसता रहा, इस उम्मीद में कि कुछ आसूदा हो सकेगा, मगर न हो सका। उसमें है ही क्या जो मैं किसी को जड़ाऊँ। मैं तो नदी किनारे खड़ा हुआ नरकूल हूँ। हवा के थपेड़ों से मेरे अन्दर भी आवाज पैदा हो जाती है, बस इतनी सी बात है। मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है, उन हवाओं का है, जो मेरे भीतर बजी। और जो हवाएँ उनके भीतर बजीं उनका साहित्य है। भारतीय जनता के दुःख-सुख का साहित्य, हमारे- आपके दु:ख-सुख का साहित्य, जिसे आप इसी कारण इतना प्यार करते हैं।
अमृत राय
[1]
बरसात के दिन हैं, सावन का महीना। आकाश में सुनहरी घटाएँ छायी हुई हैं। रह-रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है। अभी तीसरा पहर है; पर ऐसा मालूम हो रहा है, शाम हो गयी। आमों के बाग में झूला पड़ा है। लड़कियाँ भी झूल रही हैं और उनकी माताएं भी। दो-चार झूल रही हैं, दो-चार झुला रही हैं। कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा। इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं। ये फुहारें मानों चिन्ताओं को ह्रदय से धो डालती हैं। मानों मुरझाये हुए मन को भी हरा कर देती हैं। सबके दिल उमगों से भरे हुए हैं। धानी साड़ियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है।इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खड़ा हो गया। उसे देखते ही झूला बन्द हो गया। छोटी-बड़ी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना सन्दूक खोला और चमकती-दमकती चीजें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे, खूबसूरत गुड़ियाँ और गुड़ियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने कोई चीज। एक बड़ी-बड़ी आँखोंवाली बालिका ने वह चीज पसन्द की, जो चमकती हुई चीजों में सबसे सुन्दर थी। वह फिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। माँ से बोली-अम्मा, मैं यह हार लूँगी।माँ ने बिसाती से पूछा-बाबा, यह हार कितने का है ?बिसाती ने हार को रुमाल से पोंछते हुए कहा-खरीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें।माता ने कहा-यह तो बड़ा महँगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी। बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा-बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जायेगा।माता के हृदय पर सहृदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया। बालिका के आनन्द की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनन्द न होता। उसे पहनकर वह सारे गाँव में नाचती फिरी। उसके पास जो बाल-सम्पत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था।लड़की का नाम जालपा था, माता का मानकी।
[2]
महाशय दीनदयाल प्रयाग के एक छोटे से गाँव में रहते थे। वह किसान न थे; पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे; पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे; पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गाँव पर उन्हीं की धाक थी। उसके पास चार चपरासी थे, एक घोड़ा, कई गायें-भैंसे। वेतन कुल पाँच रूपये पाते थे, जो उनके तम्बाकू के खर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लड़की थी। पहले उसके तीन भाई और थे; पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता-तेरे भाई क्या हुए, तो वह बड़ी सरलता से कहती-‘बड़ी दूर खेलने गये हैं।’ कहते हैं मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अन्दर तीनों लड़के जाते रहे। तब से बेचारे बहुत सँभलकर चलते थे। फूँक-फूँककर पाँव रखते; दूध के जले थे, छाछ भी फूँक-फूँककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलम्ब !दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई-न-कोई आभूषण जरूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुड़ियाँ और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे; इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गाँव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पड़ता तो, वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जँचता ही न था।एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाये। मानकी को यह साध बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गयी।जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली-बाबूजी, मुझे भी ऐसी ही हार ला दीजिए।दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा-ला दूँगा, बेटी।‘‘कब ला दीजियेगा ?’’‘‘बहुत जल्द !’’बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा। उसने माता से जाकर कहा-अम्माजी, मुझे भी अपना-सा हार बनवा दो।माँ-वह तो बहुत रुपयों का बनेगा बेटी।जालपा-तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं ?माँ ने मुस्कराकर कहा- तेरे लिए तेरी ससुराल से आयेगा।यह हार छः सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बड़े ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आयी थी। जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे, इसमें उन्हें सन्देह था।जालपा लजाकर भाग गयी; पर यह शब्द उसके ह्रदय में अंकित हो गये। ससुराल उसके लिए अब उतनी भयंकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आयेगा, वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे। तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहाँ से आयेगी।लेकिन ससुराल से न आये तो ! उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह हो चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो ? उसने सोचा-तो क्या माताजी अपना हार मुझे दे देंगी ? अवश्य दे देंगी।इस तरह हँसते-खेलते सात वर्ष कट गये। और वह दिन भी आ गया, अब उसकी चिर-संचित अभिलाषा पूरी होगी।
[3]
मुंशी दीनदयाल की जान-पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे, बड़े ही सज्जन और सहृदय। कचहरी में नौकरी करते थे और पचास रुपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था। चाहते, तो हजारों वसूल करते; पर कभी एक पैसे के भी रवादार नहीं हुए थे। कुछ दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था-यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊँचे आदर्श के आदमी हों; पर रिश्वत को हराम समझते थे। शायद इसलिए कि वह अपनी आँखों से इसके कुफल देख चुके थे। किसी को जेल जाते देखा था, किसी को सन्तान से हाथ धोते, किसी को कुव्यसनों के पंजें में फँसते। ऐसी उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो। उनकी यह दृढ़ धारणा हो गयी थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी नहीं भूलते।इस जमाने में पचास रुपये की भगत ही क्या। पाँच आदमियों का पालन बड़ी मुश्किल से होता था। लड़के अच्छे कपड़े को तरसते, स्त्री गहनों को तरसती; पर दयानाथ विचलित न होते थे। बड़ा लड़का दो ही महीने तक कालेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा। पिता ने साफ कह दिया-मैं तुम्हारी डिगरी के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरुषार्थ से पढ़ो। बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो; लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दो साल से वह बिल्कुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर सपाटे करता और माँ और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता था। किसी का चेस्टर माँग लिया और शाम को हवा खाने निकल गये। किसी का पम्प-शू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बाँध ली। कभी बनारसी फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन में। दस मित्रों ने एक एक कपड़ा बनवा लिया, तो दस शूट बदलने का साधन हो गया। सहकारिता का यह बिलकुल नया उपयोग था इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसन्द किया। दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रुपये थे और एक नये परिवार का भार उठाने की हिम्मत; पर रामेश्वरी ने त्रिया-हठ से काम लिया और इस शक्ति के सामने पुरुष को झुकना पड़ा। रामेश्वरी बरसों से पुत्र-बधू के लिए तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुएँ बनकर आयीं, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर उस दुखिया को कैसे धैर्य होता। कुछ- कुछ निराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आये। दीनदयाल ने सन्देश भेजा, तो उसको आँखें सी मिल गयीं। अगर कहीं शिकार हाथ से निकल गया, तो फिर न जाने कितने दिनों की राह देखनी पड़े। कोई यहाँ क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदाद। लड़के पर कौन रीझता है। लोग तो धन देखते हैं; इसलिए उसने इस अवसर पर सारी शक्ति लगा दी और उसकी विजय हुई।
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PREMCHAND KE UPANYAS

premchand ke upanyas GODAN

GODAN

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
गोदान
होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी देकर अपनी स्त्री धनिया से कहा-गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूं। जरा मेरी लाठी दे दो।धनिया के हाथ गोबर से भरे थे। उपले थापकर आयी थी। बोली-अरे, कुछ-रस पानी तो कर लो। जल्दी क्या है ?होरी ने अपनी झुर्रियों से भरे हुए माथे को सिकोड़कर कहा-तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गई तो मालिक से भेंट न होगी। असनान-पूजा करने लगेंगे, तो घण्टो बैठे बीत जायेगा।‘इसी से तो कहती हूं कि कुछ जलपान कर लो। और आज न जाओगे तो कौन हरज होगा ! अभी तो परसों गये थे।’‘तू जो बात नहीं समझती उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई ! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं कहीं पता न लगता किधर गये। गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली नहीं आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरे के पाँव-तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पावों को सहलाने में ही कुशल है !’धनिया इतनी व्यवहार-कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने जमींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलाएँ। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो ; मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है। फिर वह भी हार न मानती थी, और इस विषय पर स्त्री-पुरुष में आये दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छ : सन्तानों में अब केवल तीन जिन्दा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का, और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गए। उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी दवादारू होती तो वे बच जाते ; पर वह एक धेले की दवा भी न मँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था ; पर सारे बाल पक गये थे, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं। सारी देह ढल गई थी, वह सुन्दर गेहुँआ रंग सँवला गया था, और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिन्ता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थाई जीर्णावस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस ग्रहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी खुशामद क्यों ? इस परिस्थिति में उसका मन बराबर विद्रोह किया करता था, औऱ दो-चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था।उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ लाकर सामने पटक दिए। होरी ने उसकी ओर आँखें तेरकर कहा-क्या ससुराल जाना है, जो पाँचों पोसाक लायी है ? ससुराल में भी तो जवान साली-सरहज नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊँ।होरी के गहरे साँवले पिचके हुए चेहरे पर मुस्कुराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा-ऐसे ही तो बड़ी सजीले जवान हो कि साली-सरहज तुम्हें देखकर रीझ जायँगी।होरी फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा-तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया ? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।‘जाकर सीसे में मुँह देखो। तुम-जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे ! तुम्हारी दशा देख-देखकर तो मैं औऱ भी सूखी जाती हूँ कि भगवान यह बुढ़ापा कैसे कटेगा ? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे ?’होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में जैसे झुलस गई। लकड़ी सँभालता हुआ बोला-साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पाएगी धनिया ! इसके पहले ही चल देंगे।धनिया ने तिरस्कार किया-अच्छा रहने दो, मत अशुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।होरी कन्धे पर लाठी रखकर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर ख़ड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाए हुए ह्रदय में आतंकमय कम्पन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नारीत्व के सम्पूर्ण तप और व्रत से अपनी पति को अभय-दान दे रही थी। उसके अन्तःकरण से जैसे आशीर्वादों का ब्यूह-सा निकलकर होरी को अपने अन्दर छिपाये लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी, मानो झटका देकर उसके हाथ से वह तिनके का सहारा छीन लेना चाहा, बल्कि यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना-शक्ति आ गई थी। काना कहने से काने को दुःख होता है, वह क्या दो आँखों वाले आदमी को हो सकता है ?होरी कदम बढ़ाये चला जाता था। पगडण्डी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देखकर उसने मन में कहा-भगवान् कहीं गौ से बरखा कर दें और डाँड़ी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय जरूर लेगा। देशी गायें न दूध दें, न उनके बछवे ही किसी के काम हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाँईं गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पांच सेर दूध होगा। गोबर के लिए तरस-तरस कर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खायेगा ‍? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाय। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोईं न होगी। फिर, गऊ से ही द्वार की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जायँ तो क्या कहना ! न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह शुभ दिन आयेगा !हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। बैंक सूद से चैन करके या जमीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें-से-ह्रदय में कैसे समातीं !जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट से निकलकर आकाश पर छायी हुई लालिमा को अपने रजत-प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गर्मी आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करने वाले किसान उसे देखकर राम-राम करते और सम्मान-भाव से चिलम पीने का निमन्त्रण देते थे ; पर होरी को इतना अवकाश कहाँ था ? उसके अन्दर बैठी हुई सम्मान-लालसा ऐसा आदर पाकर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी।मालिकों से मिलते-जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि सब उसका आदर करते हैं, नहीं उसे कौन पूछता ? पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्या ? यह कम आदर नहीं है कि तीन-तीन, चार-चार हलवाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं। अब वह खेतों के बीच की पगडण्डी छोड़कर एक खलेटी में आ गया था, जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नजर आती थी। आस-पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया करती थीं। उस समय में भी यहाँ की हवा में कुछ ताजगी और ठँडक थी। होरी ने दो-तीन साँसे जोर से लीं। उसके जी में आया, कुछ देर यहीं बैठ जाय। दिन-भर तो लू-लपट में मरना है ही। कई किसान इस गड्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे। अच्छी रकम देते थे ; पर ईश्वर भला करे राय साहब का जिन्होंने साफ कह दिया यह जमीन जानवरों की चराई के लिए छोड़ दी गई है औऱ किसी दाम पर न उठायी जाएगी। कोई स्वार्थी जमींदार होता, तो कहता गायें जायँ भाड़ में, हमें रुपये मिलते हैं, क्यों छोड़ें ? पर राय साहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं। जो मालिक प्रजा को न पाले, वह भी कोई आदमी है ?सहसा उसने देखा, भोला अपनी गायें इसी तरफ आ रहा है। भोला इसी गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम मिल जाने पर कभी-कभी किसानों के हाथ गायें बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देखकर ललचा गया। अगर भोला वह आगे वाली गाय उसे दे तो क्या कहना ! रुपये आगे-पीछे देता रहेगा। वह जानता था, घर में रुपये नहीं हैं। अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका, बिसेसर साह का भी देना बाकी है, जिस पर आने रुपये का सूद चढ़ रहा है ; लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है, वह निर्लज्जता जो तकाजे, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती, उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो साध मन को आन्दोलित कर रही थी, उसने उसे विचलित कर दिया। भोला के समीप जाकर बोला—राम-राम भोला भाई, कहो क्या रंग-ढंग हैं ? सुना है अबकी मेले से नयी गायें लाये हो ?भोला ने रुखाई से जवाब दिया। होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी—हाँ, दो बछियें और दो गायें लाया। पहले वाली गायें सब सूख गई थीं। बन्धी पर दूध न पहुँचे तो गुजर कैसे हो ?होरी ने आगेवाली गाय के पुट्ठे पर हाथ रखकर कहा-दुधार तो मालूम होती है। कितने में ली ?भोला ने शान जमायी-अबकी बाजार बड़ा तेज रहा महतो- अस्सी रुपये देने पड़े। आँखें निकल गईं। तीस-तीस रुपये तो दोनों कलोरों के दिये। तिस पर गाहक रुपये का आठ सेर दूध माँगता है।‘बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाई, लेकिन फिर लाये भी तो वह माल कि यहाँ कि दस-पाँच गावों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं।’भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला—राय साहब इसके सौ रुपये देते थे। दोनों कलोरों के पचास-पचास रुपये, लेकिन हमने न दिये। भगवान् ने चाहा, तो सौ रुपये तो इसी ब्यान में पीट लूँगा।‘‘इसमें क्या सन्देह है भाई ! मालिक क्या खा के लेंगे ? नजराने में मिल जाय, तो भले ले लें। यह तुम ही लोगों का गुर्दा है कि अँजुली-भर रुपये तकदीर के भरोसे लिख देते हो। यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ। धन्य है तुम्हारा जीवन गउओं की इतनी सेवा करते हो ! हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, तो कितनी लज्जा की बात है। साल-के-साल बीत जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली बार-बार कहती है, भोला भैया से क्यों नहीं कहते ? मैं कह देता हूँ, कभी मिलेंगे तो कहूँगा। तुम्हारे सुझाव से बड़ी परसन होती है। कहती है, ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे, नीची आंखें करके, कभी सिर नहीं उठाते।’भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया। बोला-आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की तरफ ताके, उसे गोली मार देना चाहिए।‘यह तुमने लाख रुपये की बात कह दी भाई ! बस सज्जन वही, जो दूसरों की आबरू को अपनी आबरू समझे।’‘जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के मर जाने पर मर्द के हाथ-पाँव टूट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी देने वाला भी नहीं।’गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गई थी। यह होरी जानता था, लेकिन पचास बरस का खंखल भोला भीतर से इतना स्निग्ध है, वह न जानता था। स्त्री की लालसा उसकी आंखों में सजल हो गई। होरी को आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक कृषक-बुद्धि सजग हो गई।‘पुरानी मसल झूठी थोड़ी है-बिन घरनी का घर भूत का डेरा। कहीं सगाई क्यों नहीं ठीक कर लेते ?’‘ताक में हूँ महतो, पर कोई जल्दी फँसता नहीं। सौ-पचास खरच करने को भी तैयार हूँ। जैसी भगवान की इच्छा।’‘अब मैं फिकर में रहूँगा। भगवान् चाहेंगे , तो जल्दी घर बस जायेगा।’‘बस, यही समझ लो कि उबर जाऊँगा भैया ! घर में खाने को भगवान का दिया बहुत है। चार पसेरी दूध हो जाता है, लेकिन किस काम का ?’‘मेरे ससुराल में एक मेहरिया है। तीन-चार साल हुए, उसका आदमी उसे छोड़ कलकत्ता चला गया। बेचारी पिसाई करके गुजर कर रही है। बाल-बच्चा भी कोई नहीं। देखने-सुनने में अच्छी है। बस, लक्ष्मी समझ लो।’भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा चिकना हो गया। आशा में कितनी सुधा है ! बोला अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो ! छुट्टी हो तो चलो एक दिन देख आयें।‘मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूंगा। बहुत उतावली करने से काम बिगड़ जाता है।’जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो। उतावली काहे की ? इस कबरी पर मन ललचाया हो, तो ले लो।’‘यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं, तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। अपना धरम यह नहीं कि मित्रों का गला दबाएँ। जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जाएँगे।’‘तुम तो ऐसी बातें करते हो होरी, जैसे हम-तुम दो हैं। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रही, वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपये में ली थी, तुम अस्सी रुपये ही देना। जाओ।’‘लेकिन मेरे पास नगद नहीं हैं दादा समझ लो।’‘ तो तुमसे नगद माँगता कौन है भाई ?’होरी की छाती गज-भर की हो गई। अस्सी रुपये में गाय मँहगी न थी। ऐसा अच्छा डील-डौल, दोनों जून में छ:-सात सेर दूध, सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा। द्वार पर बँधेगी तो द्वार की शोभा बढ़ जायेगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपये देने थे ; लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ्त समझता था ! कहीं भोला की सगाई ठीक हो गई, तो साल-दो-साल तो वह बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुई, तो होरी का क्या बिगड़ता है। यही तो होगा, भोला बार-बार तगादा करने आयेगा, बिगड़ेगा, गालियाँ देगा। लेकिन होरी को इसकी ज्यादा शर्म न थी। इस व्यवहार का वह आदी थी। कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मर्यादा के अनुकूल था। अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने और न होने में कोई अन्तर न था। सूखे बूड़े की विपदाएँ उसके मन को भीरु बनाये रहती थीं। ईश्वर का रौद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था। पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल वह दिन-रात करता रहता था। घर में दो-चार रुपये पड़े रहने पर भी महाजन के सामने कसमें खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था। औऱ यहाँ तो केवल स्वार्थ न था, थोड़ा-सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जाए, तो कोई दोष-पाप नहीं।भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा- ले जाओ महतो, तुम भी याद करोगे। ब्याते ही छ:सेर दूध ले लेना। चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ। साइत तुम्हें अनजान समझकर रास्ते में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपये देते थे, पर उनके यहाँ गउओं की क्या कदर। मुझसे लेकर हाकिम-हुक्काम को दे देते। हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब ? वह तो खून-चूसना-भर जानते हैं। जब तक दूध देती, रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़ती, कौन जाने। रुपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खाकर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद देगी। तुमसे क्या कहूँ भैया, घर में चंगुल-भर भूसा नहीं रहा। रुपये सब बाजार में निकल गए। सोचा था, महाजन से कुछ भूसा ले लेंगे ; लेकिन महाजन का पहला ही न चुका। उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरों को क्या खिलाएँ, यही चिन्ता मारे डालती है। चुटकी-चुटकी-भर खिलाऊँ, तो मन-भर रोज का खरच है। भगवान ही पार लगाएँ तो लगे।होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा-तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा ? हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया।भोला ने माथा ठोककर कहा-इसीलिए नहीं कहा भैया, कि सबसे अपना दुःख क्यों रोऊँ। बाँटता कोई नहीं, हँसते सब हैं। जो गायें सूख गई हैं, उनका गम नहीं, पत्ती-पत्ती खिलाकर जिला लूँगा ; लेकिन अब यह तो रातिब बिना नहीं रह सकती। हो सके, तो दस-बीस रुपये भूसे के लिए दे दो।किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें सन्देह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाए, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति में स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है ; खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है ; गाय के थन में दूध होता है, वह खुद पीने नहीं जाती, दूसरे ही पीते हैं ; मेघों से वर्षा होती है, उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान ? होरी किसान था और किसी के जलते हुए हाथ में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।भोला की संकट-कथा सुनते ही उसकी मनोवृत्ति बदल गई। पगहिया को भोला के हाथ में लौटाता हुआ बोला-रुपये तो दादा मेरे पास नहीं हैं। हाँ, थोड़ा-सा भूसा बचा है, वह तुम्हें दूँगा। चलकर उठवा लो। भूसे के लिए तुम गाय बेचोगे, और मैं लूँगा ! मेरे हाथ न कट जाएँगे ?भोला ने आर्द्र कंठ से कहा-तुम्हारे बैल भूखों न मरेंगे ! तुम्हारे पास भी ऐसा कौन-सा भूसा रखा है।‘नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा हो गया था।’‘मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की।’‘तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई भी न करे, तो काम कैसे चले !’‘मुदा यह गाय तो लेते जाओ।’‘अभी नहीं दादा, फिर ले लूँगा।’‘तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना।’होरी ने दुःखित स्वर में कहा-दाम-कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं एक दो जून तुम्हारे घर खा लूँ तो तुम मुझसे दाम माँगोगे ?‘लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नहीं ?’‘भगवान कोई-न-कोई सबील निकालेंगे ही। आसाढ़ सिर पर है। कड़वी बो लूँगा।’‘मगर यह गाय तुम्हारी हो गई जिस दिन इच्छा हो, आकर ले जाना।’‘किसी भाई का नीलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है, वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है।’होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होती, तो वह खुशी से गाय लेकर घर की राह लेता। भोला जब नकद रुपये नहीं माँगता, तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा है, बल्कि इसका कुछ और आशय है ; लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे कदम नहीं उठाता, वही दशा होरी की थी। संकट की चीज लेना पाप है, यह बात जनम-जन्मांतरों से उसकी आत्मा का अंश बन गई थी।भोला ने गद्गद कंठ से कहा-तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिए ?होरी ने जवाब दिया-अभी मैं राय साहब की ड्योढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी-भर में लौटूँगा, तभी किसी को भेजना।भोला की आँखों में आँसू भर आये। बोला-तुमने आज मुझे उबार लिया होरी भाई ! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में अकेला नहीं हूँ। मेरा भी कोई हितू है। एक क्षण के बाद उसने फिर कहा-उस बात को भूल न जाना।होरी आगे बढ़ा, तो उसका चित्त प्रसन्न था। मन में एक विचित्र स्फूर्ति हो रही थी। क्या हुआ, दस-पाँच मन भूसा चला जायेगा, बेचारे को संकट में पड़कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मेरे पास चारा हो जायेगा, तब गाय खोल लाऊंगा। भगवान करें, मुझे कोई मेहरिया मिल जाए। फिर तो कोई बात ही नहीं।उसने पीछे फिरकर देखा। कबरी गाय पूँछ से मक्खियाँ उड़ाती, सिर हिलाती, मस्तानी, मन्द-गति से झूमती चली जाती थी, जैसे बाँदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ होगा वह दिन जब यह कामधेनु उसके द्वार बँधेगी !सेमरी और बेलारी, दोनों अवध-प्रान्त के गाँव हैं। जिले का नाम बताने की कोई जरूरत नहीं। होरी बिलारी में रहता है, रायसाहब अमरपाल सिंह सेमरी में। दोनों गाँव में केवल पाँच मील का अन्तर है। पिछले सत्याग्रह संग्रम में रायसाहब ने बड़ा यश कमाया था। कौंसिल की मेम्बरी छोड़कर गाँव चले गये थे। तब से उनके इलाके में असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गई थी। यह नहीं कि उनके इलाके में असामियों के साथ कोई खास रियायत की जाती हो, या डाँड़ और बेगार की कड़ाई कुछ कम हो ; मगर यह सारी बदनामी मुख्तारों के सिर जाती थी। रायसाहब की कीर्ति पर कोई कलंक न लग सकता था। वह बेचारे तो उसी व्यवस्था के गुलाम थे। जाब्ते का काम तो जैसा होता चला आया है, वैसा ही होगा। रायसाहब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी, इसलिए आमदनी और अधिकार में जौ-भर की भी कमी न होने पर भी उनका यश मानो बढ़ गया था। असामियों से वह हँसकर बोल लेते थे। यही क्या कम है ? सिंह का काम तो शिकार करना है ; अगर वह गरजने और गुर्राने के बदले मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता। शिकार की खोज में जंगल में भटकना न पड़ता।राय साहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाये रखते थे। उनकी नजरें और डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी की तैसी चली आती थीं। साहित्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौकीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे निशानेबाज। उनकी पत्नी को मरे आज दस साल हो चुके थे ! मगर दूसरी शादी न की थी। हँस-बोलकर अपने विधुर जीवन को बहलाते थे।होरी ड्योढ़ी पर पहुँचा तो देखा, जेठ के दशहरे के अवसर पर होनेवाले धनुष यज्ञ की बड़ी जोरों से तैयारियाँ हो रही हैं ; कहीं रंग-मंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का आतिथ्यगृह, कहीं दूकानदारों के लिए दुकानें। धूप तेज हो गई थी ; पर राय साहब खुद काम में लगे हुए थे। अपने पिता से सम्पत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पाई थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप देकर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था। इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमन्त्रित होते थे। और दो-तीन दिन इलाके में बड़ी चहल-पहल रहती थी। राय साहब का परिवार बहुत विशाल था। कोई डेढ़ सौ सरदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे। दरजनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीसियों नाते के भाई। एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृंन्दावन में रहते थे। भक्ति-रस के कितने ही कवित्त रच डाले थे और समय-समय पर उन्हें छपवाकर दोस्तों की भेंट कर देते थे। एक दूसरे चचा था, जो राम के परम भक्त थे और फारसी भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे। रियासत से सबके वसीके बँधे हुए थे। किसी को कोई काम करने की जरूरत न थी।होरी मंडप में खड़ा सोच रहा था कि अपने आने की सूचना कैसे दे कि सहसा रायसाहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले-अरे ! तू आ गया होरी, मैं तो तुझे बुलानेवाला था। देख, अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पड़ेगा। समझ गया न, जिस वक्त श्री जानकी जी मन्दिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक्त तू एक गुलदस्ता लिए खड़ा रहेगा और जानकीजी को भेंट करेगा, गलती न करना देख, असामियों से ताकीद करके कह देना कि सब-के-सब शगुन करने आएँ। मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी हैं।वह आगे-आगे कोठी की ओऱ चले, होरी पीछे-पीछे चला। वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुर्सी पर बैठ गये और होरी को जमीन पर बैठने का इशारा करके बोले-समझ गया, मैंने क्या कहा। कारकुन को तो जो कुछ करना है, वह करेगा ही ; लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन नहीं सुनता। हमें इन्हीं पाँच-सात दिनों में बीस हजार का प्रबन्ध करना है। कैसे होगा, समझ में नहीं आता। तुम सोचते होगे, मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे। किससे अपने मन की कहूँ ? न जाने क्यों, तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है। इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं। और हँसो भी, तो तुम्हारी हँसी मैं बरदाश्त कर सकूँगा। नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी हँसी में ईर्ष्या, व्यंग और जलन है। औऱ वे क्यों न हँसगे ? मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँ, दिल खोलकर, तालियाँ बजाकर। सम्पत्ति सह्रदयता में बैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं। लेकिन जानते हो ? क्यों ? केवल अपने बराबरवालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुद्ध अहंकार। हममें से किसी पर डिग्री हो जाए, कुर्की आ जाए, बकाया मालगुजारी की इल्लत में हवालात हो जाए, किसी का जवान बेटा मर जाए, किसी की विधवा बहू निकल जाए, किसी के घर में आग लग जाए, कोई वैश्या के हाथों उल्लू बन जाए, या अपने असामियों के हाथों पिट जाए, तो उसके और सभी भाई उस पर हँसेंगे, बगलें बजाएँगे, मानो सारे संसार की सम्पदा मिल गई है। और मिलेंगे तो इतने प्रेम से, जैसे हमारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार हैं। अरे, और तो औऱ, हमारे चचेरे, फुफेरे, ममेरे, मौसेरे भाई जो इसी रियासत की बदौलत मौज उड़ा रहे हैं, कविता कर कर रहे हैं और जुए खेल रहे हैं, शराब पी रहे हैं और ऐयाशी कर रहे हैं, वह भी मुझसे जलते हैं, आज मर जाऊं तो घी के चिराग जलाएँ। मेरे दुःख को दुःख समझने वाला कोई नहीं। उनकी नजरों में मुझे दुखी होने का कोई अधिकार ही नहीं है। मैं अगर होता हूँ, तो दुःख की हँसी उड़ाता हूँ। अगर मैं बीमार होता हूँ, तो मुझे सुख होता है। मैं अगर अफना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़ाता, तो यह मेरी नीच स्वार्थपरता है ; अगर ब्याह कर लूँ, तो वह विलासांधता होगी। अगर शराब नहीं पीता तो मेरी कंजूसी है। शराब पीने लगूँ, तो वह प्रजा का रक्त होगा। अगर ऐयाशी नहीं करता, तो अरसिक हूँ, ऐयाशी करने लगूँ, तो फिर कहना ही क्या ! इन लोगों ने मुझे भोग-विलास में फँसाने के लिए कम चालें नहीं चलीं और अब तक चलते हैं। उनकी यही इच्छा है कि मैं अन्धा हो जाऊँ और ये लोग मुझे लूट लें, और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देखकर भी कुछ न देखूँ। सब कुछ जानकर भी गधा बना रहूँ।राय साहब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए दो बीड़े पान खाए और होरी के मुँह की ओर ताकने लगे, जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चाहते हों।होरी ने साहस बटोरकर कहा-हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती हैं, पर जान पड़ता है, बड़े आदमियों में भी उनकी कमी नहीं है।
मुख्र्य पृष्ठ

premchand ke upanyas--NIRMALA

NIRMALA
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
प्रेमचन्द्र की गणना हिन्दी के निर्माताओं में की जाती है। कहानी और उपन्यास के क्षेत्रों में उन्होंने पहली सफल रचनाएँ दीं जो गुण तथा आकार दोनों दृष्टियों से अन्यतम हैं।प्रेमचन्द्र के जिन उपन्यासों ने साहित्य के मानक स्थापित किए, उनमें निर्मला बहुत आगे माना जाता है। इसमें हिन्दू समाज में स्त्री के स्थान का सशक्त चित्रण किया गया है। इस पर बना दूरदर्शन का सीरियल भी बहुत लोकप्रिय हुआ है।
प्रेमचन्द का यह उपन्यास ‘‘निर्मला’’ छोटा होते हुए भी उनके प्रमुख उपन्यासों में गिना जाता है। इसका प्रकाशन आज से लगभग 65 साल पहले 1925 में हुआ था। इस उपन्यास में उन्होंने दहेज प्रथा तथा बेमेल विवाह की समस्या उठाई है और बहुसंख्यक मध्यमवर्गीय हिन्दू समाज के जीवन का बड़ा यथार्थवादी मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। उनके अन्य उपन्यास निम्नवर्गीय तथा ग्रामीण कृषक जीवन का चित्रण करते हैं तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता तथा समानता का पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत करते हैं। इस श्रेणी में ‘‘गोदान’’, ‘‘रंगभूमि’’, ‘‘कर्मभूमि’’, ‘‘सेवासदन’’, ‘‘प्रेमाश्रम’’ आदि उपन्यास आते हैं जो सब गांधी विचारधारा से प्रभावित आदर्शवादी तथा आम जनता के जीवन से संबंधित है। ‘‘गबन’’ भी ‘‘निर्मला’’ की ही भाँति स्त्रियों की समस्या पर है परन्तु यह एक अन्य समस्या-स्त्रियों के आभूषण प्रेम की समस्या प्रस्तुत करता है।प्रेमचन्द हिन्दी के आद्य कथाकार हैं। उनका जन्म वाराणसी के पास लमही ग्राम में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। उसका वास्तविक नाम धनपतराय था। कालेज में पढ़ते समय उन्होंने उर्दू में नवाबराय के नाम से लिखना शुरु किया। बाद में उन्होंने हिन्दी में लिखा और पहले अपने उर्दू उपन्यासों का हिन्दी रूपान्तर प्रकाशित कराया, फिर मूल हिन्दी में ही लिखने लगे। उनका बचपन गरीबी में बीता और उन्होंने स्कूल की नौकरी से अपना जीवन आरंभ किया। कुछ वर्ष बाद वे हमीरपुर जिले में महोबा के सब डिप्टी इन्सपेक्टर आफ स्कूल्स बने और इसके बाद प्रधानाध्यापक बन गये।लेखक के रूप में आपकी ख्याति तेजी से बढ़ी। ‘‘बड़े घर की बेटी’’ कहानी में पहली बार आपने ‘‘प्रेमचन्द’’ नाम का उपयोग किया। आपने सैकड़ों कहानियां तथा एक दर्जन के लगभग उपन्यास लिखे जो सब बहुत लोकप्रिय हुए। नौकरी छोड़कर आपने अपना प्रेस लगाया तथा कई पत्रिकाओं का सम्पादन किया। बंबई जाकर फिल्म निर्माण में भी सहयोग दिया परन्तु इसमें सफल नहीं हुए और बनारस वापस लौट आए। अंतिम दिनों में वे काफी बीमार रहे और 8 अक्टूबर 1936 को उनका देहान्त हो गया। प्रेमचन्द्र का स्वभाव बहुत सरल और मधुर था। प्रसिद्ध हो जाने पर भी उनकी जीवनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया। वे अकेले ही हिन्दी में कहानी को न केवल स्थापित कर गये बल्कि उसे उपयुक्त दिशा भी प्रदान कर गये।
निर्मला
यों तो बाबू उदयभानुलाल के परिवार में बीसों ही प्राणी थे, कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा, कोई भांजा था, कोई भतीजी, लेकिन यहाँ हमें उनसे कोई प्रयोजन नहीं। वह अच्छे वकील थे, लक्ष्मी प्रसन्न थीं और कुटुम्ब के दरिद्र प्राणियों को आश्रय देना उनका कर्तव्य ही था। हमारा सम्बन्ध तो केवल उनकी दो कन्याओं से है, जिनमें से बड़ी का नाम निर्मला और छोटी का नाम कृष्णा था। अभी कल दोनों साथ-साथ गुड़िया खेलती थीं। निर्मला का पन्द्रहवाँ साल था, कृष्णा का दसवाँ, फिर उनके स्वाभाव में कोई विशेष अन्तर न था। दोनों चंचल, खिलाड़िन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं। दोनों गुड़िया का धूमधाम से ब्याह करती थी, सदा काम से जी चुराती थीं। माँ पुकारती रहती थी पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिये बुलाती हैं। दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डाँटती थीं और बाजे की आवाज सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थी। पर आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी को बड़ी और छोटी को छोटी बना दिया है। कृष्णा वही है, पर निर्मला बड़ी गंभीर, एकान्त- प्रिय और लज्जाशील हो गई है। इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मेहनत ठिकाने लगी है। बाबू भालचन्द्र सिनहा के ज्येष्ठ पुत्र भुवन मोहन सिनहा से बात पक्की हो गई है। वर के पिता ने कह दिया है कि आपकी खुशी हो दहेज दें या न दें मुझे इसकी परवाह नहीं है; हाँ बारात में जो लोग जायँ उनका आदर सत्कार अच्छी तरह होना चाहिए, जिसमें मेरी और आपकी जगहँसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील पर संचय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी। इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं तो मानो उन्हें आँखें मिल गईं। डरते थे, न जाने किस- किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक कर रखा था। उसका अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम खर्च न होंगे। यह आश्वसन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाये।इसकी सूचना ने अज्ञान बालिका को मुँह ढाँप कर एक कोने में बिठा रखा है। उसके ह्रदय में एक विचित्र शंका समा गई है, रोम-रोम में एक अज्ञात भय का संचार हो गया है -न जाने क्या होगा ? उसके मन मे उमंगें नहीं है, जो युवतियों की आँखों में तिरछी चितवन बन कर, ओठों पर मधुर हास्य बन कर और अंगों में आलस्य बनकर प्रकट होती है। नहीं, वहाँ अभिलाषाएँ नहीं है; वहां केवल शंकाएँ, चिंताएँ और भीरु कल्पनाएँ हैं। यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है।कृष्णा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नहीं जानती। जानती है, बहिन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, द्वार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आयेंगे, नाच होगा-यह जानकर प्रसन्न है; और यह भी जानती है कि बहिन सब के गले मिलकर रोयेगी, यहाँ से रो धोकर विदा हो जायगी; मैं अकेली रह जाऊँगी-यह जानकर दुःखी है। पर यह नहीं जानती कि यह सब किस लिए हो रहा है। माताजी और पिता जी क्यों बहिन को घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं। बहिन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी ये लोग निकाल देंगे ? मैं भी इसी तरह कोने में बैठकर रोऊँगी और किसी को मुझ पर दया न आयेगी ? इसलिए वह भयभीत भी है। सन्ध्या का समय था, निर्मला छत पर जाकर अकेली बैठी आकाश की ओर तृषित नेत्रों से ताक रही थी। ऐसा मन होता है कि पंख होते तो वह उड़ जाती और इन सारे झंझटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहिनें कहीं सैर करने जाया करती थीं। बग्घी खाली न होती, तो बगीचे ही में टहला करती। इसलिए कृष्णा उसे खोजती फिरती थी। जब कहीं न पाया, तो छत पर आई और उसे देखते ही हँसकर बोली-तुम यहाँ आकर छिपी बैठी हो और मैं तुम्हें ढूँढती फिरती हूँ। चलो बग्घी तैयार कर आयी हूँ।निर्मला ने उदासीन भाव से कहा, तू जा, मैं न जाऊंगी।कृष्णा- नहीं मेरी अच्छी दीदी, आज जरूर चलो। देखो, कैसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है।निर्मला-मेरा मन नहीं चाहता, तू चली जा।कृष्णा की आँखें डबडबा आईं। काँपती हुई आवाज से बोली-आज तुम क्यों नहीं चलतीं ? मुझसे क्यों नहीं बोलतीं ? क्यों इधर-उधर छिपी-छिपी फिरती हो ? मेरा जी अकेले बैठे-बैठे घबड़ाता है। तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊंगी। यहीं तुम्हारे साथ बैठी रहूँगी।निर्मला-और जब मैं चली जाऊंगी, तब क्या करोगी ? तब किसके साथ खेलोगी, किसके साथ घूमने जायेगी, बता ?कृष्णा-मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। अकेले मुझसे यहाँ न रहा जायगा। निर्मला मुस्कुराकर बोली-तुझे अम्मा न जाने देंगीं।कृष्णा- तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी। तुम अम्मा से कह क्यों नहीं देतीं कि मैं न जाऊंगी ?निर्मला-कह तो रही हूं, कोई सुनता है ?कृष्णा-तो क्या यह तुम्हारा घर नहीं है ?निर्मला-नहीं, मेरा घर होता तो कोई क्यों जबर्दस्ती निकाल देता ?कृष्णा-इसी तरह किसी दिन मैं भी निकाल दी जाऊंगी ?निर्मला-और नहीं क्या तू बैठी रहेगी ! हम लड़कियां हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।कृष्णा-चन्दर भी निकाल दिया जायगा ?निर्मला-चन्दर तो लड़का है, उसे कौन निकालेगा ?कृष्णा-तो लड़कियां बहुत खराब होती होंगी ?निर्मला-खराब न होतीं तो घर से भगाई क्यों जातीं ?कृष्णा-चन्दर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी नहीं करती।एकाएक चन्दर धम-धम करता हुआ छत पर आ पहुँचा और निर्मला को देखकर बोला-अच्छा ! आप यहां बैठी हैं। ओहो ! अब तो बाजे बजेंगे, दीदी दूल्हन बनेंगी, पालकी पर चढ़ेंगी ओहो ! ओहो !चन्दर का पूरा नाम चन्द्रभानु सिनहा था। निर्मला से तीन साल छोटा और कृष्णा से दो साल बड़ा।निर्मला-चन्दर, मुझे चिढ़ाओगे तो अभी जाकर अम्मा से कह दूँगी।चन्द्र-तो चिढ़ती क्यों हो ? तुम भी बाजे सुनना। ओ हो-हो। अब आप दूल्हन बनेंगी ! क्यों किशनी, तू बाजे सुनेगी न ? वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे।कृष्णा-क्या बैण्ड से भी अच्छे होंगे ?चन्द्र-हाँ हाँ, बैण्ड से भी अच्छे, हजार गुने अच्छे, लाख गुने अच्छे,। तुम जानो क्या ? एक बैण्ड सुन लिया तो समझने लगीं कि उससे अच्छे बाजे नहीं होते। बाजे बजाने वाले लाल-लाल वर्दियाँ और काली काली टोपियाँ पहने होंगे। ऐसे खूबसूरत मालूम होंगे कि तुमसे क्या कहूँ ! आतिशबाजियाँ भी होंगी, हवाइयाँ आसमान में उड़ जायेंगी और वहां तारों में लगेंगी तो लाल, पीले, हरे, नीले, तारे टूट-टूटकर गिरेंगे। बड़ा मजा आयेगा।कृष्णा-और क्या-क्या होगा चन्दर, बता दे मेरे भैया।चन्द्र-मेरे साथ घूमने चल तो रास्ते में सारी बातें बता दूं। ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे कि देखकर तेरी आँखें खुल जायेंगी। हवा में उड़ती हुई परियाँ होंगी, सचमुच की परियाँ।कृष्णा-अच्छा चलो, लेकिन न बताओगे तो मारूँगी।चन्द्रभानु और कृष्णा चले गये, निर्मला अकेली बैठी रह गई। कृष्णा के चले जाने से इस समय उसे बड़ा क्षोभ हुआ। कृष्णा, जिसे वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, आज इतनी निठुर हो गई। अकेली छोड़कर चली गई ! बात कोई न थी, लेकिन दुःखी ह्रदय दुखती हुई आंख है, जिसमें हवा से भी पीड़ा होती है। निर्मला बड़ी देर तक बैठी रोती रही। भाई -बहन माता-पिता, सभी इसी भाँति मुझे भूल जायेंगे, सब की आँखें फिर जायँगी, फिर शायद इन्हें देखने को भी तरस जाऊँ।बाग में फूल खिले हुए थे। मीठी-मीठी सुगन्ध आ रही थी। चैत की शीतल मन्द समीर चल रही थी। आकाश में तारे छिटके हुए थे। निर्मला इन्हीं शोक मय विचारों में पड़ी-पड़ी सो गई और आँख लगते ही उसका मन स्वप्न-देश में विचरने लगा। क्या देखती है कि सामने एक नदी लहरें मार रही है और वह नदी के किनारे नाव की बाट देख रही है। सन्ध्या का समय है। अँधेरा किसी भयंकर जन्तु की भाँति बढ़ता चला आता है। वह घोर चिंता में पड़ी हुई है कि कैसे यह नदी पार होगी, कैसे घर पहुँचूँगी। रो रही है कि कहीं रात हो जाये, नहीं तो मैं अकेली यहाँ कैसे रहूँगी। एकाएक उसे एक सुन्दर नौका घाट की ओर आते दिखाई देती है। वह खुशी से उछल पड़ती है और ज्योंही नाव घाट पर आती है, वह उस पर चढ़ने के लिए बढ़ती है लेकिन ज्योंही नाव के पटरे पर पैर रखना चाहती है, उसका मल्लाह बोल उठता है-तेरे लिए यहाँ जगह नहीं है ! वह मल्लाह की खुशामद करती है, उसके पैरों पड़ती है, रोती है लेकिन वह यह कहे जाता है, तेरे लिए यहाँ जगह नहीं है। एक क्षण में नाव खुल जाती है। वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगती है। नदी के निर्जन तट पर रात भर कैसे रहेगी, यह सोच वह नदी में कूद कर उस नाव को पकड़ना चाहती है कि इतने में कहीं से आवाज आती है-ठहरो, ठहरो, नदी गहरी है, डूब जाओगी। वह नाव तुम्हारे लिए नहीं है। मैं आता हूँ, मेरी नाव पर बैठ जाओ। मैं उस पार पहुँचा दूँगा। वह भयभीत होकर इधर-उधर देखती है कि यह आवाज कहां से आई। थोड़ी देर के बाद एक छोटी-सी डोंगी आती दिखाई देती है। उसमें न पाल है, न पतवार, और न मस्तूल। पेंदा फटा हुआ है, तख्ते टूटे हुए, नाव में पानी भरा हुआ है, और एक आदमी उसमें पानी उलीच रहा है। वह उससे कहती है, यह तो टूटी हुई है, यह कैसे पार लगेगी ? मल्लाह कहता है-तुम्हारे लिए यही भेजी गई है, आकर बैठ जाओ ! वह एक क्षण सोचती है- इसमें बैठूँ या न बैठूँ ? अन्त में वह निश्चय करती है बैठ जाऊं। यहाँ अकेली पड़ी रहने से नाव में बैठ जाना फिर भी अच्छा है। किसी भयंकर जन्तु के पेट में जाने से तो अच्छा ही है। कि नदी में डूब जाऊँ। कौन जाने, नाव पार पहुँच ही जाये। यह सोचकर वह प्राणों को मुट्ठी में लिए हुए नाव पर बैठ जाती है। कुछ देर तक नाव डगमगाती हुई चलती है, लेकिन प्रतिक्षण उसमें पानी भरता जाता है। वह भी मल्लाह के साथ दोनों हाथों से पानी उलीचने लगती है। यहाँ तक की उनके हाथ रह जाते हैं, पर पानी बढ़ता ही चला जाता है, आखिर नाव चक्कर खाने लगती है, मालूम होता है- अब डूबी, अब डूबी। तब वह किसी अदृश्य सहारे के लिए हाथ फैलाती है, नाव नीचे से खिसक जाती है और उसके पैर उखड़ जाते हैं। वह जोर से चिल्लाई और चिल्लाते ही उसकी आँख खुल गई। देखा तो माता सामने खड़ी उसका कन्धा पकड़ हिला रही थीं।
(2)
बाबू उदयभानुलाल का मकान बाजार बना हुआ है। बरामदे में सुनार के हथौड़े और कमरे में दर्जी की सूईयाँ चल रही हैं। सामने नीम के नीचे बढ़ई चारपाइयाँ बना रहा है। खपरैल में हलवाई के लिए भट्टा खोदा गया है। मेहमानों के लिए अलग मकान ठीक किया गया है। यह प्रबन्ध किया जा रहा है कि हरेक मेहमान के लिए एक-एक चारपाई, एक-एक कुर्सी और एक-एक मेज हो। हर तीन मेहमानों के लिए एक-एक कहार रखने की तजवीज हो रही है। अभी बारात आने में एक महीने की देर हैं। लेकिन तैयारियाँ अभी से हो रही हैं। बारातियों का ऐसा सत्कार किया जाय कि किसी को जबान हिलाने का मौका न मिले। वे लोग भी याद करें कि किसी के यहाँ बारात में गये थे। एक पूरा मकान बर्तनों से भरा हुआ है। चाय के सेट हैं, नाश्ते की तश्तरियाँ, थाल, लोटे, गिलास। जो लोग नित्य खाट पर पड़े हुक्का पीते रहते थे, बड़ी तत्परता से काम में लगे हुए हैं। अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का ऐसा अच्छा अवसर उन्हें फिर बहुत दिनों के बाद मिलेगा। जहाँ एक आदमी को जाना होता है, पाँच दौड़ते हैं। काम कम होता है, हुल्लड़ अधिक। जरा-जरा सी बात पर घण्टों तर्क-वितर्क होता है और अन्त में वकील साहब को आकर निर्णय करना पड़ता है। एक कहता है, यह घी खराब है, दूसरी कहता है, इससे अच्छा बाजार में मिल जाए तो टाँग की राह से निकल आऊं। तीसरा कहता है, इसमें तो हीक आती है। चौथा कहता है, तुम्हारी नाक ही सड़ गई है, तुम क्या जानों घी किसे कहते हैं। जब से यहाँ से आये हो, घी मिलने लगा है, नहीं तो घी के दर्शन भी न होते थे ! इस पर तकरार बढ़ जाती है और वकील साहब को झगड़ा चुकाना पड़ता है। रात के नौ बजे थे। उदयभानुलाल अन्दर बैठे हुए खर्च का तखमीना लगा रहे थे। वह प्रायः रोज ही तखमीना लगाते थे; पर रोज ही उसमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन और परिवर्धन करना पड़ता था। सामने कल्याणी भौंहें सिकोड़े हुए खड़ी थी। बाबू साहब ने बड़ी देर के बाद उठाया और बोले-दस हजार से कम नहीं होता, बल्कि शायद और बढ़ जाय।कल्याणी-दस दिन में पाँच हजार से दस हजार हुए। एक महीने में तो शायद एक लाख की नौबत आ जाय।उदयभानु-क्या करूँ, जग हँसाई भी तो अच्छी नहीं लगती। कोई शिकायत हुई तो लोग कहेंगे, नाम बड़े दर्शन थोड़े। फिर जब वह मुझसे दहेज एक पाई नहीं लेते तो मेरा भी यह कर्तव्य है कि मेहमानों के आदर-सत्कार में कोई बात उठा न रखूँ।कल्याणी-जब से ब्रह्या ने सृष्टि रची, तब से आज तक कभी बरातियों को कोई प्रसन्न नहीं रख सका। उन्हें दोष निकालने और निन्दा करने का कोई-न-कोई अवसर मिल ही जाता है। जिसे अपने घर सूखी रोटियाँ भी मयस्सर नहीं, वह भी बारात में जाकर तानाशाह बन बैठता है। तेल खुशबुदार नहीं, साबुन टके सेर का जाने कहाँ से बटोर लाये, कहार बात नहीं सुनते, लालटेनें धुआँ देती है, कुर्सियाँ में खटमल हैं, चारपाइयाँ ढीली हैं, जनवासे की जगह हवादार नहीं। ऐसी-ऐसी हजारों शिकायतें होती रहती हैं। उन्हें आप कहाँ तक रोकियेगा ? अगर यह मौका न मिला, तो और कोई ऐब निकाल लिये जायँगे। भई, यह तेल तो रंडियों के लगाने लायक है, हमें तो सादा तेल चाहिए। जनाब ने यह साबुन नहीं भेजा है, अपनी अमीरी की शान दिखाई है, मानो हमने साबुन देखा ही नहीं। ये कहार नहीं यमदूत हैं, जब देखिये, सिर पर सवार ! लालटेनें ऐसी भेजी हैं कि आँखें चमकने लगती हैं, अगर दस-पाँच दिन इस रोशनी में बैठना पड़े तो आँखें फूट जायँ। जनवासा क्या है, अभागे का भाग्य है, जिस पर चारों तरफ से झोंके आते रहते हैं। मैं तो फिर यही कहूँगी कि बारातियों के नखरों का विचार ही छोड़ दो।उदयभानु-तो आखिर तुम मुझे क्या करने को कहती हो ?कल्याणी-कह तो रही हूँ, पक्का इरादा कर लो कि मैं पाँच हजार से अधिक न खर्च करूँगा। घर में तो टका है नहीं, कर्ज ही का भरोसा ठहरा, तो इतना कर्ज क्यों ले कि जिन्दगी में अदा न हो। आखिर मेरे और बच्चे भी तो हैं, उनके लिए भी तो कुछ चाहिए।उदयभानु-तो आज मैं मरा जाता हूँ ?कल्याणी-जीने मरने का हाल कोई नहीं जानता।उदयभानु-तो तुम बैठी यही मनाया करती हो।कल्याणी-इसमें बिगड़ने की तो कोई बात नहीं। मरना एक दिन सभी को है। कोई यहाँ अमर होकर थोड़े ही आया है। आँखें बन्द कर लेने से तो होने वाली बात न टलेगी। रोज आँखों देखती हूँ, बाप का देहान्त हो जाता है, उसके बच्चे गली-गली ठोकरें खाते फिरते हैं। आदमी ऐसा काम ही क्यों करे ?उदयभानु ने जलकर कहा-तो अब समझ लूँ कि मेरे मरने का दिन निकट आ गये, यही तुम्हारी भविष्यवाणी है ! सुहाग से स्त्रियों का जी तो ऊबते नहीं सुना था, आज यह नई बात मालूम हुई। रँडापे में भी कोई सुख होगा ही !कल्याणी-तुमसे दुनिया की कोई भी बात कही जाती है, तो जहर उगलने लगते हो ! इसलिए न कि जानते हो, इसे कहीं ठिकाना नहीं है, मेरी ही रोटियों पर पड़ी हुई है; या और कुछ ! जहाँ कोई बात कहीं, बस सिर हो गये, मानो मैं घर की लौंडी हूँ, मेरा केवल रोटी और कपड़ें का नाता है। जितना ही मैं दबती हूँ, तुम और भी दबाते हो, मुफ्तखोर माल उड़ायें, कोई मुँह न खोले, शराब कबाब में रुपये लुटें, कोई जबान न हिलाये। वे सारे काँटे मेरे बच्चों ही के सिर तो बोये जा रहे हैं।उदयभानु-तो मैं क्या तुम्हारा गुलाम हूँ ?कल्याणी-तो क्या मैं तुम्हारी लौंडी हूँ ?उदयभानु-ऐसे मर्द और होंगे जो औरतों के इशारों पर नाचते हैं।कल्याणी-तो ऐसी स्त्रियाँ भी और होंगी जो मर्दों की जूतियाँ सहा करती हैं, उदयभानु-मैं कमा कर लाता हूँ, जैसे चाहूँ खर्च कर सकता हूँ। किसी को बोलने का अधिकार नहीं।कल्याणी-तो आप अपना घर सँभालिये ! ऐसे घर को मेरा दूर ही से सलाम है, जहाँ मेरी कोई पूछ नहीं। घर में तुम्हारा जितना अधिकार है, उतना ही मेरा भी। इससे जौ भर भी कम नहीं। अगर तुम अपने मन के राजा हो तो मैं भी अपने मन की रानी हूँ। तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक रहे, मेरे लिए पेट की रोटियों की कमी नहीं है, तुम्हारे बच्चे हैं, मारो या जिलाओ। न आँखों से देखूँगी, न पीड़ा होगी। आँखें फूटीं, पीर गई !उदयभानु-क्या तुम समझती हो कि तुम न सँभालोगी तो मेरा घर ही न सँभलेगा मैं अकेले ऐसे-ऐसे दस घर संभाल सकता हूँ।कल्याणी-कौन ? अगर आज के महीनवें दिन मिट्टी में न मिल जाय, तो कहना कोई कहती थी।यह कहते-कहते कल्याणी का चेहरा तमतमा उठा, वह झमककर उठी और कमरे के द्वार की ओर चली। वकील सहाब मुकदमों में तो खूब मीन-मेख निकालते थे, लेकिन स्त्रियों के स्वभाव का उन्हें कुछ यों ही-सा ज्ञान था। यही एक ऐसी विद्या है जिनमें आदमी बूढ़ा होने पर भी कोरा रह जाता है। अगर वे अब भी नरम पड़ जाते और कल्याणी का हाथ पकड़कर बिठा लेते, तो शायद वह रुक जाती। लेकिन आपसे यह तो हो न सका। उल्टे चलते-चलते एक और चरका दिया।बोले-मैके का घमण्ड होगा ?कल्याणी ने द्वार पर रुक कर पति की ओर लाल-लाल नेत्रों से देखा और बिफरकर बोली-मैके वाले मेरे तकदीर के साथी नहीं है और न मैं इतनी नीच हूँ कि उनकी रोटियों पर जा पड़ूँ।उदयभानु-तब कहाँ जा रही हो ?कल्याणी-तुम यह पूछने वाले कौन हो ? ईश्वर की सृष्टि में असंख्य प्राणियों के लिए जगह है, क्या मेरे ही लिए जगह नहीं है।यह कह कर कल्याणी कमरे के बाहर निकल गई। आँगन में आकर उसने एक बार आकाश की ओर देखा, तारागण को साक्षी दे रही है कि मैं इस घर से कितनी निर्ययता से निकाली जा रही हूँ। रात के ग्यारह बज गये थे। घर में सन्नाटा छा गया था दोनों बेटों की चारपाई उसी कमरे में रहती थी। वह अपने कमरे में आई, देखा चन्द्रभानु सोया है, सबसे छोटा सूर्यभानु चारपाई पर उठ बैठा है। माता को देखते ही वह बोला-तुम तहाँ दई तीं अम्मा ?कल्याणी दूर ही से खड़े-खड़े बोली-कहीं तो नहीं बेटा, तुम्हारे बाबूजी के पास गई थी।सूर्य-तुम तली दई, मुधे अतेले दर लदता ता। तुम त्यों तली दई तीं, बताओं ?यह कहकर बच्चे ने गोद में चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला दिये। कल्याणी अब अपने को न रोक सकी। मातृ-स्नेह के सुधा प्रवाह से उसका संतप्त ह्रदय परिप्लावित हो गया। ह्रदय के कोमल पौधे, जो क्रोध के ताप से मुरझा गये थे, फिर हरे हो गये। आँखें सजल हो गयीं। उसने बच्चे को गोद उठा लिया और छाती से लगाकर बोली-तुमने पुकार क्यों न लिया, बेटा ?सूर्य-पुतालता तो ता, तुम थुनती न तीं, बताओं अब तो कबी न दाओगी। कल्याणी-नहीं भैया, अब नहीं जाऊँगी।यह कहकर कल्याणी सूर्यभानु को लेकर चारपाई पर लेटी। माँ के ह्रदय से लिपटते ही बालक निःशंक होकर सो गया, कल्याणी के मन में संकल्प-विकल्प होने लगे, पति की बातें याद आतीं तो मन होता-घर को तिलांजलि देकर चली जाऊं। लेकिन बच्चों का मुँह देखती, तो वात्सल्य से चित्त गद्गद हो जाता है। बच्चों को किस पर छोड़कर जाऊँ ? मेरे इन लालों को कौन पालेगा, ये किसके होकर रहेंगे ? कौन प्रातः काल इन्हें दूध और हलवा खिलायेगा, कौन इनकी नींद सोयेगा, इनकी नींद जागेगा ? बेचारे कौड़ी के तीन हो जायेंगे। नहीं प्यारो, मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी। तुम्हारे लिए सब कुछ सह लूँगी। निरादर-अपमान, जली-कटी, खरी-खोटी, घुड़की-झिड़की सब तुम्हारे लिए सहूँगी।कल्याणी तो बच्चे को लेकर लेटी; पर बाबू साहब को नींद न आई। उन्हें चोट करने वाली बातें बड़ी मुश्किल से भूलती थीं। उफ, यह मिजाज मानो मैं ही इनकी स्त्री हूँ। बात मुँह से निकालनी मुश्किल है। अब मैं इनका गुलाम होकर रहूँ। घर में अकेली यह रहें और बाकी जितने अपने बेगाने हैं, सब निकाल दिये जायँ। जला करती हैं। मनाती हैं कि यह किसी तरह मरें तो मैं अकेली आराम करूँ। दिल की बात मुँह से निकल ही आती है, चाहे कोई कितनी ही छिपाये। कई दिन से देख रहा हूँ ऐसी जली-कटी सुनाया करती हैं। मैके का घमण्ड होगा, लेकिन वहाँ कोई भी न पूछेगा, अभी सब आवभगत करते हैं, जब आकर सिर पड़ जायँगी तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा। रोती हुई आयेंगी। वाह रे घमण्ड, सोचती हैं-मैं ही यह गृहस्थी चलाती हूँ। अभी चार दिन को कहीं चली जाऊं तो मालूम हो जायेगा, सारी शेखी किरकिरी हो जायेगी। एक बार इनका घमण्ड तोड़ ही दूँ। जरा वैधव्य का मजा भी चखा दूँ। न जाने इनकी हिम्मत कैसे पड़ती है, कि मुझे यों कोसने लगती हैं। मालूम होता है, प्रेम इन्हें छू नहीं गया या समझती हैं यह घर से इतना चिमटा हुआ है कि इसे चाहें जितना कोसूँ टलने का नाम न लेगा। यही बात है, पर यहाँ संसार से चिमटनेवाले जीव नहीं है। जहन्नुम में जाय यह घर, जहाँ ऐसे प्राणियों से पाला पड़े। घर है या नरक ? आदमी बाहर से थका-माँदा आता है तो उसे घर में आराम मिलता है। यहाँ आराम के बदले कोसने सुनने पड़ते हैं। मेरी मृत्यु के लिए व्रत रख जाते हैं। यह है पच्चीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन का अन्त ! बस चल ही दूँ। जब देख लूँगा इनका सारा घमण्ड धूल में मिल गया और मिजाज ठण्डा हो गया, तो लौट आऊँगा। चार-पाँच दिन काफी होंगे। लो तुम भी याद करोगी कि किसी से पाला पड़ा था।यही सोचते हुए बाबू साहब उठे, रेशमी चादर गले में डाली, कुछ रुपये लिये अपना कार्ड निकालकर दूसरे कुर्ते की जेब में रखा, छड़ी उठाई और चुपके से बाहर निकले। सब नौकर नींद में मस्त थे। कुत्ता आहट पाकर चौंक पड़ा और उनके साथ हो लिया।पर यह कौन जानता था कि यह सारी लीला विधि के हाथों रची जा रही है। जीवन-रंगशाला का वह निर्दय सूत्रधार किसी अगम गुप्त स्थान पर बैठा हुआ अपनी जटिल क्रूर क्रीड़ा दिखा रहा है। यह कौन जानता था कि नकल असल होने जा रही है, अभिनय सत्य का रूप ग्रहण करने वाला है।निशा ने इन्दु को परास्त करके अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। उसकी पैशाचिक सेना ने प्रकृति पर आतंक जमा रखा था। सद्वृत्तियाँ मुँह छिपाये पड़ी थीं और कुवृत्तियाँ विजय-गर्व से इठलाती फिरती थीं। वन में वन्य-जन्तु शिकार की खोज में विचर रहे थे और नगरों में नर-पिशाच गलियों में मँडराते फिरते थे। बाबू उदयभानुलाल लपके हुए गंगा की ओर चले जा रहा थे। उन्होंने अपना कुर्ता घाट के किनारे रखकर पाँच दिन के लिए मिर्जापुर चले जाने का निश्चय किया था। उनके कपड़े देखकर लोगों को डूब जाने का विश्वास हो जायगा, कार्ड कुर्ते की जेब में था। पता लगाने में कोई दिक्कत न हो सकती थी। दम-के-दम में सारे शहर में खबर मशहूर हो जायगी। आठ बजते-बजते तो मेरे द्वार पर सारा शहर जमा हो जायगा, तब देखूँ देवीजी क्या करती हैं।यही सोचते हुए बाबू साहब गलियों में चले जा रहे थे, सहसा उन्हें अपने पीछे किसी दूसरे आदमी के आने की आहट मिली, समझे कोई होगा। आगे बढ़े, लेकिन जिस गली में वह मुड़ते उसी तरफ यह आदमी भी मुड़ता था। तब बाबू साहब को आशंका हुई कि यह आदमी मेरा पीछा कर रहा है। ऐसा आभास हुआ कि इसकी नियत साफ नहीं है। उन्होंने तुरन्त जेबी लालटेन निकाली और उसके प्रकाश में एक आदमी को देखा। एक बलिष्ठ मनुष्य कन्धे पर लाठी रखे चला आता था। बाबू साहब उसे देखते ही चौंक पड़े। यह शहर का छटा हुआ बदमाश था। तीन साल पहले उस पर डाके का अभियोग चला था। उदयभानु ने उस मुकदमे में सरकार की ओर से पैरवी की थी और इस बदमाश को तीन साल की सजा दिलाई थी। तभी से वह इनके खून का प्यासा हो रहा था। कल ही वह छूटकर आया था। आज दैवात् बाबू साहब अकेले रात को दिखाई दिये, तो उसने सोचा यह इनसे दाँव चुकाने का अच्छा मौका है। ऐसा मौका शायद ही फिर कभी मिले। तुरन्त पीछे हो लिया और वार करने की घात ही में था कि बाबू साहब ने जेबी लालटेन जलाई। बदमाश जरा ठिठककर बोला-क्यों बाबूजी, पहचानते हो ? मैं हूँ मतई।बाबू साहब ने डपटकर कहा- तुम मेरे पीछे-पीछे क्यों आ रहे हो।मतई-क्यों, किसी को रास्ता चलने की मनाही है ? यह गली तुम्हारे बाप की है ?बाबू साहब जवानी में कुश्ती लड़ रहे थे, अब भी हष्ट- पुष्ट आदमी थे। दिल के भी कच्चे न थे। छड़ी सँभालकर बोले-अभी शायद मन नहीं भरा। अबकी सात साल को जाओगे।मतई-मैं सात साल को जाऊंगा या चौदह साल को, पर तुम्हें जीता न छोड़ूगा। हाँ, अगर तुम मेरे पैरों पर गिरकर कसम खाओ कि अब किसी को सजा न कराऊँगा, तो छोड़ दूँ। बोलो, मंजूर है ?
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premchand ke chuninda kahaniya


सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
1
बड़े भाई साहब
मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे; लेकिन केवल तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी क्रम में पढ़ना शुरू किया था जब मैंने शुरू किया; लेकिन तालीम जैसे महत्त्व के मामले में वह जल्दबाज़ी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भावना की बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे, जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद भी पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने !मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की थी, वह चौदह साल के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और निगरानी का पूरा और जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझूँ।वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते। और शायद दिमाग़ को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुन्दर अक्षरों में नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य। मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी–स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दरअसल, भाई-भाई, राधेश्याम, एक घंटे तक–इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने बहुत चेष्टा की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ, लेकिन असफल रहा। और उनसे पूछने का साहस न हुआ। वह नवीं जमात में थे, मैं पाँचवीं में। उनकी रचनाओं को समझना मेरे लिए छोटा मुँह बड़ी बात थी।मेरा जी पढ़ने को बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते ही होस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी काग़ज़ की तितलियाँ उड़ाता, और कहीं कोई साथी मिल गया, तो पूछना ही क्या। कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं, कभी पाठक पर सवार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनन्द उठा रहे हैं, लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का वह रुद्र-रूप देखकर प्राण सूख जाते ! उनका पहला सवाल यह होता–कहाँ थे ? हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में हमेशा पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मेरे मुँह में यह बात क्यों न निकलती कि ज़रा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज़ न था कि स्नेह और रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें।‘‘इस तरह अंग्रेज़ी पढ़ोगे तो ज़िन्दगी भर पढ़ते रहोगे और हर्फ़ न आयेगा। अंग्रेज़ी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे, पढ़ ले; नहीं ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेज़ी के विद्वान हो जाते। यहाँ रात-दिन आँखें फोड़नी पड़ती हैं और खून जलाना पड़ता है, तब कहीं यह विद्या आती है। और आती क्या है, हाँ कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े विद्वान भी शुद्ध अंग्रेज़ी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा, और मैं कहता हूँ, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मिहनत करता हूँ, यह तुम अपनी आँखों से देखते हो, अगर नहीं देखते, तो यह तुम्हारी आँखों का क़सूर है, तुम्हारी बुद्धि का क़सूर है। इतने मेले-तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है ? रोज़ ही क्रिकेट और हाकी-मैच होते हैं। मैं पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहता हूँ। उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूँ; फिर भी तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कूद में वक़्त गँवाकर पास हो जाओगे ? मुझे तो दो-तीन साल ही लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे ! अगर तुम्हें इस तरह उम्र गँवानी है तो बेहतर है; घर चले जाओ और मज़े से गुल्ली-डण्डा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों बरबाद करते हो ?’’मैं यह लताड़ सुनकर आँसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था ? अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे ? भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते, कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत टूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने की शक्ति मैं अपने में न पाता था और निराशा में ज़रा देर के लिए मैं सोचने लगता–क्यों न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमें हाथ डालकर क्यों अपनी ज़िन्दगी ख़राब करूँ। मुखे अपना मूर्ख रहना मंजूर था, लेकिन उतनी ही मेहनत ! मुझे तो चक्कर आ जाता था; लेकिन घंटे-दो-घंटे के बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढ़ूँगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शा बनाये, कोई स्कीम तैयार किये काम कैसे शुरू करूँ। टाइम-टेबिल में खेलकूद की मद बिलकुल उड़ जाती। प्रातःकाल उठना; छः बजे मुँह-हाथ धो, नाश्ता कर, पढ़ने बैठ जाना। छः से आठ तक अंग्रेज़ी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, फिर भोजन और स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घण्टा आराम, चार से पाँच तक भूगोल, पाँच से छः तक ग्रामर; आधा घण्टा होस्टल के सामने टहलना, साढ़े छः से सात तक अंग्रेज़ी कम्पोजीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्दी, दस से ग्यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम।मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन उसकी अवहेलना शुरू हो जाती है। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के हल्के-हल्के झोंके, फुटबाल की वह उछलकूद, कबड्डी के वह दाँव-घात, बालीबाल की वह तेज़ी और फुरती, मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जानलेवा टाइम-टेबिल, वह आँखफोड़ पुस्तकें, किसी की याद न रहती, और भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने की चेष्टा करता, कमरे में इस तरह दबे पाँव आता कि उन्हें ख़बर न हो। उनकी नज़र मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर एक नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।
2
सालाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेल हो गये, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और उनके बीच में केवल दो साल का अन्तर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आड़े हाथों लूँ–आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गयी ? मुझे देखिए, मज़े से खेलता भी रहा और दरजे में अव्वल भी हूँ। लेकिन वह इतने दुःखी और उदास थे कि मुझे उनसे दिली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्जास्पद जान पड़ा। हाँ, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्मसम्मान भी बढ़ा। भाई साहब का वह रोब मुझ पर न रहा। आज़ादी से खेलकूद में शरीक होने लगा। दिल मजबूत था। अगर उन्होंने फिर फजीहत की, तो साफ कह दूँगा–आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते दरज़े में अव्वल आ गया। जबान से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग से साफ़ ज़ाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक मुझ पर नहीं था। भाई साहब ने इसे भाँप लिया–उनकी सहज-बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली डंडे की भेट करके ठीक भोजन के समय लौटा तो भाई साहब ने मानो तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े–देखता हूँ, इस साल पास हो गये और दरजे में अव्वल आ गये, तो तुम्हें दिमाग़ हो गया है; मगर भाईजान, घमंड तो बड़े-बड़े का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है ? इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके चरित्र से तुमने कौन-सा उपदेश लिया ? या यों ही पढ़ गये ? महज इम्तहान पास कर लेना कोई चीज़ नहीं, असल चीज़ है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढ़ो, उसका अभिप्राय समझो। रावण भूमंडल का स्वामी था। ऐसे राज्यों को चक्रवर्ती कहते हैं। आज कल अंग्रेजों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है; पर इन्हें चक्रवर्ती नहीं कर सकते। संसार में अनेकों राष्ट्र अंग्रेज़ों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करते, बिलकुल स्वाधीन हैं। रावण चक्रवर्ती राजा था, संसार के सभी महीप उसे कर देते थे। बड़े-बड़े देवता उसकी गुलामी करते थे। आग और पानी के देवता भी उसके दास थे; मगर उसका अन्त क्या हुआ ? घमंड ने उसका नामों-निशान तक मिटा दिया, कोई उसे एक चुल्लू पानी देने वाला भी न बचा। आदमी और जो कुकर्म चाहे करे; पर अभिमान न करे, इतराये नहीं। अभिमान किया, और दीन-दुनिया दोनों से गया। शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा। उसे यह अभिमान हुआ था कि ईश्नवर का उससे बढ़कर सच्चा भक्त कोई है ही नहीं ! अंत में यह हुआ कि स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार किया था। भीख माँग-माँगकर मर गया। तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास किया है, और अभी से तुम्हारा सिर फिर गया, तब तो तुम आगे पढ़ चुके। यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए, अंधे के हाथ बटेर लग गयी। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं लग सकती। कभी-कभी गुल्ली-डण्डे में भी अंधा-चोट निशाना पड़ जाता है। इससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता। सफल खिलाड़ी वह है, जिसका कोई निशाना ख़ाली न जाय। मेरे फेल होने पर मत जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दाँतों पसीना आ जायगा, अब अलजबरा और जामेट्री के लोहे चने चबाने पड़ेगे और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी ही गुज़रे हैं। कौन-सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो ? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवाँ लिखा और सब नंबर गायब ! सफाचट। सिफर भी ना मिलेगा, सिफ़र भी ! हो किस ख़याल में। दरजनो तो जेम्स हुए हैं, दरजनों विलियम, कोड़ियों चार्ल्स ! दिमाग़ चक्कर खाने लगता है। आँधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही नाम के पीछे दोयम, सोयम, चहारुम, पंजुम लगाते चले गये। मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता और जामेट्री तो बस खुदा की पनाह ! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नंबर कट गये। कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फ़र्क है, और व्यर्थ की बात के लिए क्यों छात्रों का खून करते हो। दाल-भात-रोटी खाई या भात-दाल-रोटी खाई, इसमें क्या रखा है, मगर इन परीक्षकों को क्या परवाह। वह तो वही देखते हैं जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि लड़के अक्षर-अक्षर रट डालें। और इसी रटन्त का नाम शिक्षा रख छोड़ा है। और आख़िर इन बे-सर-पैर की बातों के पढ़ने से क्या फ़ायदा ? इस रेखा पर वह लंब गिरा दो, तो आधार लंब से दुगुना होगा। पूछिए, इससे प्रोयजन ? दुगुना नहीं, चौगुना हो जाय, या आधी ही रहे, मेरी बला से; लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफ़ात याद करनी पड़ेगी ! कह दिया - ‘समय की पाबन्दी’ पर एक निबंध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। अब आप कापी सामने खोले, क़लम हाथ में लिये उसके नाम को रोइए। कौन नहीं जानता कि समय की पाबन्दी बहुत अच्छी बात है, इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है, दूसरों का उस पर स्नेह होने लगता है और उसके कारोबार में उन्नति होती है; लेकिन इस ज़रा-सी बात पर चार पन्ने कैसे लिखें। जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्नों में लिखने की ज़रूरत ? मैं तो इसे हिमाकत करता हूँ। यह तो समय की किफायत नहीं; बल्कि उसका दुरुपयोग है कि व्यर्थ में किसी बात को ठूँस दिया जाय। हम चाहते हैं, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे, अपनी राह ले। मगर नहीं आपको चार पन्ने रँगने पड़ेंगे : चाहे जैसे लिखिए। और पन्ने भी पूरे फुलस्केप के आकार के। यह छात्रों पर अत्याचार नहीं तो और क्या है ? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो। समय की पाबंदी पर संक्षेप में एक निबन्ध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। ठीक ! संक्षेप में तो चार पन्ने हुए नहीं शायद सौ-दो-सौ पन्ने लिखवाते। तेज भी दौड़िये और धीरे-धीरे भी है। उलटी बात है या नहीं ? बालक भी इतनी-सी बात समझ सकता है; लेकिन इन अध्यापकों को तमीज़ भी नहीं। उस पर दावा है कि हम अध्यापक हैं। मेरे दरजे में आओगे लाला, तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस दरजे में अव्वल आ गये हो, तो ज़मीन पर पाँव नहीं रखते। इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, संसार का मुझे तुमसे कहीं ज्यादा-अनुभव है। जो कुछ कहता हूँ, उसे गिरह बाँधिए, नहीं पछताइयेगा।’’स्कूल का समय निकट था, नहीं ईश्वर जाने यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। भोजन आज मुझे निःस्वाद-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो फेल हो जाने पर शायद प्राण ही ले लिये जायँ। भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था; उसने मुझे भयभीत कर दिया। स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब है; लेकिन इतने तिरस्कार पर भी पुस्तकों में मेरी अरुचि ज्यों-की-त्यों बनी रही। खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी; मगर बहुत कम, बस इतना कि रोज का टास्क पूरा हो जाये और दरजे में ज़लील न होना पड़े। अपने ऊपर जो विश्वास पैदा था, वह फिर लुप्त हो गया और फिर चोरों का-सा जीवन कटने लगा।
3
फिर सालाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं फिर पास हुआ और भाई साहब फेल हो गये। मैंने बहुत मेहनत नहीं की; पर न जाने कैसे दरजे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गये थे, दस बजे रात तक इधर चार बजे भोर से उधर, छः से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले मुद्रा कांतिहीन हो गयी थी; मगर बेचारे फेल हो गये। मुझे उन पर दया आती थी ! नतीजा सुनाया गया तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास होने की खुशी आधी हो गई ! मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दुःख न होता, लेकिन विधि की बात कौन टाले।मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अन्तर और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कहीं भाई साहब एक साल और फेल हो जायँ, तो मैं उनके बराबर हो जाऊँ फिर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेंगे, लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल डाला। आख़िर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डाँटते हैं। मुझे इस वक़्त अप्रिय लगता है अवश्य, मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो कि मैं दनादन पास हो जाता हूँ और इतने अच्छे नम्बरों से।अब भाई साहब बहुत कुछ नर्म पड़ गये थे। कई बार मुझे डाँटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज से काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डाँटने का अधिकार उन्हें नहीं रहा, या रहा भी, तो बहुत कम। मेरी स्वच्छन्दता भी बढ़ी। मैं उनकी सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं पास हो ही जाँऊगा, पढ़ूँ या न पढ़ूँ, मेरी तकदीर बलवान है; इसलिए भाई साहब के डर से जो थोड़ा, बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बन्द हुआ। मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाज़ी की ही भेंट होता था; फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था, और उनकी नज़र बचाकर कनकौए उड़ाता था। माँझा देना, कन्ने बाँधना, पतंग टूरनामेंट की तैयारियाँ आदि समस्याएँ सब गुप्त रूप से हल की जाती थीं। मैं भाई साहब को यह सन्देह न करने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहाज़ मेरी नज़रों में कम हो गया है।एक दिन संध्या समय, होस्टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आँखें आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मन्द गति से झूमता पतंग की ओर चला आ रहा था, मानों कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नये संस्कार ग्रहण करने आ रही हो। बालकों की पूरी सेना लग्गे और झाड़दार बाँस लिये इनका स्वागत करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को अपने आगे-पीछे की ख़बर न थी। सभी मानों उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहाँ सब कुछ समतल है, न मोटरकार है, ट्राम, न गाड़ियाँ।सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गयी, जो शायद बाज़ार से लौट रहे थे। उन्होंने वहीं हाथ पकड़ लिया और उग्र भाव से बोले-‘‘इन बाज़ारी लौंडों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं आती ? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि कि अब नीची जमाअत में नहीं हो; बल्कि आठवीं जमाअत में आ गये हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो पोजीशन का ख़याल करना चाहिए। एक ज़माना था कि लोग आठवाँ दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने ही मिंडिलचियों को जानता हूँ, जो आज अव्वल दरजे के डिप्टी मैजिस्ट्रेट या सुपरिंटेंडेंट हैं। कितनी ही आठवीं जमाअत वाले हमारे लीडर और समाचार, पत्रों के सम्पादक हैं। बड़े-बड़े विद्वान उनकी मातहती में काम करते हैं। और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाज़ारी लौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो। मुझे तुम्हारी इस कमअकली पर दुःख होता है। तुम ज़हीन हो, इसमें शक नहीं, लेकिन वह जेहन किस काम का, जो हमारे आत्म-गौरव की हत्या कर डाले। तुम अपने दिल में समझते होंगे, मैं भाई साहब से महज एक दरजा नीचे हूँ, और अब उन्हें मुझकों कुछ कहने का हक़ नहीं है; लेकिन यह तुम्हारी ग़लती है। तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और चाहे आज तुम मेरी ही जमाअत में आ जाओ–और परीक्षकों का यही हाल है; तो निःसन्देह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद मुझसे आगे भी निकल जाओ–लेकिन मुझमें और तुममें जो पाँच साल का अन्तर है; उसे तुम क्या; खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और हमेशा रहूँगा ! मुझे दुनिया का और ज़िन्दगी का जो तजरबा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एम.ए. और डी.लिट्. और डी.फिल्. ही क्यों न हो जाओ समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती, दुनिया देखने से आती है। हमारी अम्माँ ने कोई दरजा नहीं पास किया, और दादा भी शायद पाँचवीं-छठी जमाअत के आगे नहीं गये; लेकिन हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विद्या पढ़ लें, अम्माँ और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मदाता हैं; बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे ज़्यादा तज़रबा है और रहेगा। अमेरिका में किस तरह राज व्यवस्था है, और आठवें हेनरी ने कितने ब्याह-किये और आकाश में कितने नक्षत्र हैं, यह बाते चाहें उन्हें न मालूम हों; लेकिन हज़ारों ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान उन्हें हमसे और तुमसे ज़्यादा है। दैव न करे, आज मैं बीमार हो जाऊँ, तो तुम्हारे हाथ-पाँव फूल जायँगे। दादा को तार देने के सिवा तुम्हें और कुछ न सूझेगा; लेकिन तुम्हारी जगह दादा हों, तो किसी को तार न दें, न घबरायें, न बदहवास हों। पहले खुद मरज पहचानकर इलाज़ करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डाक्टर को बुलायेंगे। बीमारी तो ख़ैर बड़ी चीज़ है। हम तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने भर का ख़र्च महीना भर कैसे चले। जो कुछ दादा भेजते हैं, उसे हम बीस-बाईस तक खर्च कर डालते हैं, और फिर पैसे-पैसे के मुहताज हो जाते हैं। नाश्ता बन्द हो जाता है, धोबी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं, लेकिन जितना आज हम और तुम ख़र्च कर रहे हैं, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज्ज़त और नेकनामी के साथ निभाया है और कुटुम्ब का पालन किया है जिसमें सब मिलाकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो। एम.ए. हैं, कि नहीं; और यहाँ के एम.ए. नहीं, आक्सफोर्ड के। एक हज़ार रुपये पाते हैं, लेकिन उनके घर का इन्तजाम कौन करता है ? उनकी बूढ़ी माँ। हेडमास्टर साहब की डिग्री यहाँ बेकार हो गई। पहले खुद घर का इन्तजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जब से उनकी माता जी ने प्रबंध अपने हाथ में लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गई है। तो भाईजान, यह गरूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गये हो और अब स्वतंत्र हो। मेरे देखते हुए तुम बेराह न चलने पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ, तुम्हें मेरी बातें ज़हर लग रही हैं।....’’मैं उनकी इस नई युक्ति से नत-मस्तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैंने सजल आँखों से कहा –हरगिज़ नहीं। आप जो कुछ फ़रमा रहे हैं, वह बिलकुल सच है और आपको उसके कहने का अधिकार है। भाई साहब ने मुझे गले से लगा लिया और बोले–मैं कनकौए उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा भी जी ललचाता है; लेकिन करूं क्या, खुद बेराह चलूँ तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ ? यह कर्तव्य भी मेरे सिर है !संयोग से उसी वक़्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुज़रा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लम्बे हैं ही ! उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होस्टल की तरफ़ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था
मुख्र्य पृष्ठ

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premchand ke kahaniya

सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया। उनकी कहानियाँ परिवेश को बुनती हैं। पात्र चुनती है। उसके संवाद उसी भाव-भूमि से लिए जाते हैं जिस भाव-भूमि से घटना घट रही है। इसलिए पाठक कहानी के साथ अनुस्यूत हो जाता है। इसलिए प्रेमचंद यथार्थवादी कहानीकार हैं। लेकिन वे घटना को ज्यों-का-त्यों लिखने को कहानी नहीं मानते। यही वजह है कि उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का गंगा-यमुनी संगम है।कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये थे। उन्होंने मुख्यताः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया है। उनकी कथायात्रा में श्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं, यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु सुसंगत यथार्थवाद है।प्रेमचंद की प्रत्येक कहानी मानव मन के अनेक दृश्यों चेतना के अनेक छोरों सामाजिक कुरीतियों तथा आर्थिक उत्पीड़न के विविध आयामों को अपनी संपूर्ण कलात्मकता के साथ अनावृत करती है। कफन, नमक का दारोगा, शतरंज के खिलाड़ी, वासना की कड़ियाँ, दुनिया का सबसे अनमोल रतन आदि सैकड़ों रचनाएँ ऐसी हैं, जो विचार और अनुभूति दोनों स्तरों पर पाठकों को आज भी आंदोलित करती हैं। वे एक कालजयी रचनाकार की मानवीय गरिमा के पक्ष में दी गई उद्घोषणाएँ हैं। समाज के दलित वर्गों, आर्थिक और सामाजिक यंत्रणा के शिकार मनुष्यों के अधिकारों के लिए जूझती मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ हमारे साहित्य की सबलतम निधि हैं।
प्रकाशकीय
प्रेमचंद्र की कहानियों का रचना संसार
कहानी, साहित्य की सबलतम विधा है। वह एक ऐसा दर्पण है, जिसमें व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंधों, क्रियाविधियों उसके सुख-दुःख के क्षणों की सजीव, हृदयग्राही तथा मार्मिक तस्वीरें देखी जा सकती हैं। इसके उन्नयन और विकास में विश्व के अनेक कथाकारों ने जो योगदान किया, वह भाषा-शैली, रूप-विधान, कला-सौष्ठव तथा तकनीक की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह हिंदी कहानी की उपलब्धि है कि इसे अपने विकास के आदिकाल में मुंशी प्रेमचंद जैसे मानव मन के कुशल चितेरे मिले, जिनके कहानी साहित्य ने हिंदी उर्दू में एक नए युग का सूत्रपात किया। प्रेमचंद की कहानियों का फलक व्यापक है। हिंदी के प्रख्यात समीक्षक डॉ.गौतम सचदेव ने मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का मूल्यांकन करते हुए कहा-विचार तत्व उनकी कहानियों का निर्देशक है। लाहौर के मासिक पत्र ‘नौरंगे खयाल’ के संपादक के यह पूछने पर कि आप कैसे लिखते हैं? प्रेमचंद जी ने उत्तर दिया, मेरी कहानियां प्रायः किसी न किसी प्रेरणा या अनुभव पर आधारित होती हैं। इसमें मैं ड्रामाई रंग पैदा करने की कोशिश करता हूँ। केवल घटना वर्णन के लिए या मनोरंजन घटना को लेकर मैं कहानियां नहीं लिखता। मैं कहानी में किसी दार्शनिक या भावनात्मक लक्ष्य को दिखाना चाहता हूं। जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिलता, मेरी कलम नहीं उठती। प्रेमचंद का उक्त वक्तव्य आज भी प्रासंगिक है। शैल्पिक विशेषताओं की दृष्टि से भी प्रेमचंद की कहानियां अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। अपने समकालीन कथा साहित्य और परवर्ती पीढ़ी को उनकी कहानियों ने यथेष्ट रूप से प्रभावित किया है। हमारी इच्छा थी कि प्रेमचंद के अमर कहानी साहित्य को नयनाभिराम ढंग से डायमंड के पाठकों के समक्ष कम मूल्य में प्रस्तुत किया जाए। प्रस्तुत संकलन इसी दिशा में एक प्रयास है।
नरेंद्र कुमार
ईदगाह
रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आई है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है। वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं हैं, पड़ोस के घर से सुई तागा लाने को दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना भेंटना। दोपहर के पहले लौटना असंभव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं; लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज़ है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे। आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन। सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयाँ खाएँगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं ! उन्हें क्या खबर कि चौधरी आज आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना ख़जाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एस दो दस बारह। उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो तीन आठ नौ पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीज़ें लाएँगे—खिलौने, मिठाइयाँ बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या ! और सबसे ज्यादा प्रसन्न है। हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब-सरत दुबला पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता न चला, क्या बीमारी है। कहती भी तो कौन सुनने वाला था। दिल पर जो बीतती थी, वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं। बहुत सी थैलियाँ लेकर आएँगे। अम्मीजान अल्लाहमियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा ! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हैं। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आएँगी तो वह दिल के अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा महमूद मोहसिन नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिनी अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं। आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती ? इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को ? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबद लेकर आए, हामिद की आनंद भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी। हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है-तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले जाऊँगा। बिलकुल न डरना। अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है ? उसे कैसे अकेले मेले जाने दे! उस भीड़-भाड़ में बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो ! नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्हीं-सी जान, तीन कोस चलेगा कैसे ? पैर में छाले पड़ जाएँगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद ले लेगी, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकाएगा ? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीज़ें जमा करते लगेंगे। माँग ही का तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिए थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी, इसी ईद के लिए। लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती। हामिद के लिए कुछ नहीं है तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में पाँच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार ! अल्लाह ही बेड़ा पार लगाएगा। धोबन और नाइन और मेहतरानी और चूड़िहारिन सभी तो आएँगी। सभी को सेवैया चाहिए और थोड़ा किसी की आँखों नहीं लगता। किस-किस से मुँह चुराएगी। और मुँह क्यों चुराए ? साल भर का त्यौहार है। जिंदगी खैरियत से रहे उनकी तकदीर भी जो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जाएँगे। गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। ये लोग क्यों इतना धीरे चल रहे हैं ? हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है ? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है। बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लबघर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे। सब लड़के नहीं हैं जी। बड़े-बड़े आदमी हैं, सच, उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं, इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर ? हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के, रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे और क्या। क्लबघर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुरदे की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं और बड़े-बड़े तमाशे होते है, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और यहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछों-दाढ़ी वाले और मेमें भी खेलती हैं, सच। हमारी अम्मा को वह दे दो, क्या नाम है, बैट तो उसे पकड़ ही नहीं सकें। घूमते ही लुढ़क न जाएँ। महमूद ने कहा हमारी अम्मीजान का तो हाथ कापँने लगे, अल्ला कसम। मोहसिन बोला-चलो मनों आटा पीस डालती हैं। जरा सा बैट पकड़ लेंगी तो हाथ काँपने लगेंगे। सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो मेरी भैंस पी जाती हैं। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े तो आँखों तले अँधेरा आ जाए। महमूद—लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं। मोहसिन—हाँ, उछल-कूद नहीं सकतीं, लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, तो अम्मा इतनी तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें पा न सका, सच। आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता हैं ? देखो न एक-एक दुकान पर मनों होंगी। सुना है रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रुपए देता है, बिलकुल ऐसे ही रुपए। हामिद को यकीन न आया-ऐसे रुपए जिन्नात को कहाँ से मिल जाएँगे ? मोहसिन ने कहा जिन्नात को रुपए की क्या कमी ? जिस खजाने में चाहें चले जाएँ। लोहे के दरवाजे इन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में। हीरे जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाएँ। हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बडे़-बड़े होते होंगे। मोहसिन—एक-एक आसमान के बराबर होता है जी। जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए। हामिद—लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे ? कोई मुझे वह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ। मोहसिन—अब यह तो मैं नहीं जानता लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत जिन्नात हैं। कोई चीज़ चोरी चली जाए। चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम भी बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए। कहीं न मिला। तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरंत बता दिया कि मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की ख़बर दे जाते हैं। अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है, और क्यों उनका इतना सम्मान है। आगे चलें। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन ! फाम फो ! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जाएँ। मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं ? तभी तुम बहुत जानते हो। अजी हजरत, यही चोरी कराते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिलते हैं। रात कोये लोग चोरों से कहते हैं कि चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर जागते रहो ! जागते रहो ! पुकारते हैं। जभी इन लोगों के पास इतने पैसे आते हैं। मेरे मांमू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रुपए महीना पाते हैं, लेकिन पचास रुपए घर भेजते हैं। अल्ला कसम ! मैंने एक बार पूछा था कि मामूं आप इतने रुपए कहाँ से पाते हैं ? हँसकर कहने लगे बेटा अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाएँ। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए। हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई उन्हें पकड़ता नहीं ? मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला, अरे पागल, इन्हें कौन पकड़ेगा ? पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं। लेकिन अल्लाह इन्हें सज़ा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए मामूं के घर आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे। फिर न जाने कहाँ से एक सौ रुपए कर्ज लाए तो बरतन भाँड़े आए। हामिद—एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं। ‘कहाँ पचास कहाँ एक सौ। पचास एक थैली भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आएँ।’अब बस्ती घनी होने लगी थी। ईदगाद जाने वालों की टोलियाँ नजर आने लगीं। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए, कोई इक्के ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का वह छोटा-सा दल अपना विपन्नता से बेखर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें, अनोखी थीं। जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते। और पीछे से बार-बार हॉर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा। सहसा ईदगाह नजर आया। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजिम बिछा हुआ है और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजिम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुंदर संचालन है, कितनी सुंदर व्यवस्था ! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुके जाते हैं, फिर सब के सब एक साथ खड़े हो जाते हैं। एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, बिस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं। मानो भ्रातत्व का एक सत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है। नमाज खत्म हो गई है, लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का वह इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है। एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी घोड़े ऊँट छड़ों से लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन नूरे, और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए, वह नहीं दे सकता। सब चर्खियों के उतरे हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दुकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं। सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह ! कितने सुंदर खिलौने हैं। अब बोलना ही चाहते हैं। अहमद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला कंधे पर बंदूक रखे हुए। मालूम होता है, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई, ऊपर मशक रखे हुए हैं। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए हैं। कितना प्रसन्न है। शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वता है, उसके मुख पर। काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी सुनहरी जंजीर एक हाथ में कानून का पोथा लिए हुए है। मालूम होता है, अभी किसी अदालत में जिरह या बहस किए चले आ रहे हैं। ये सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले ? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े, तो चूर-चूर हो जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के ? मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज़ पानी दे जाएगा, साँझ-सवेरे। महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा। कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा। नूरे और मेरा वकील खूब मुकद्दमा लड़ेगा।सम्मी—और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी। हामिद खिलौनों की निंदा करता है-मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएँ। लेकिन ललचाई हुई आंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते, विशेषकर जब अभी नया शौक़ हो। हामिद ललचाता रह जाता है। खिलौनों के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवडियाँ ली हैं, किसी ने गुलाब जामुन, किसी ने सोहन हलवा मज़े से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता ? ललचाई आँखों से सबकी ओर देखता है। मोहसिन कहता है—हामिद, रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार हैं। हामिद को संदेह हुआ, यह केवल क्रूर विनोद है। मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवडी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजा कर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है। मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद अल्ला कसम ले जा। हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है। सम्मी—तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे ?अहमद—हमसे गुलाब जामुन ले जा हामिद। मोहसिन बदमाश है। हामिद—मिठाई कौन बड़ी नियामत है ! किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं। मोहसिन—लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते ?महमूद—हम समझते हैं इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाएँगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा। मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की हैं, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वह सब आगे बढ़ जाते हैं। हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। चिमटे रखे हुए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास चिमटा नहीं। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होगी ! फिर उनकी ऊँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएँगी। खिलौने से क्या फ़ायदा व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है, फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूटकर बराबरा हो जाएँगे। चिमटा कितने काम की चीज हैं। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हे में सेंक लो, कोई आग माँगने आए तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मा बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आए और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं। रोज हाथ जला लेती हैं। हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखें, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते हैं। मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाए मिठाइयाँ आप मुँह सड़ेगा, फोड़े फुंसियाँ निकलेंगी। आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। अब घर से पैसे चुराएँगे और मार खाएँगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी ? अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी-मेरा बच्चा अम्मा के लिए चिमटा लाया है। हजारों दुआएँ देंगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएँगी। सारे गाँव में चर्चा होने लगेगी, हामिद चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा ? बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं और तुरंत सुनी जाती हैं। मेरा पास पैसे नहीं हैं। तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज़ दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिजाज़ दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खाएँ मिठाइयाँ, मैं नहीं खेलता खिलौने किसी का मिजाज़ क्यों सहूँ ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभी-न-कभी आएँगे। अम्मा भी आएँगी। फिर इन लोगों से पूँछूँगा, कितने खिलौने लोगे ? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसे मेरी बला से। उसने दूकानदार से पूछा, यह चिमटा कितने का है ?
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